पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२७७

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Jk रगू- अच्छा तो यह बताइये कि वह औरत कौन. महन्थ -- इसका जवाब देना भी सहज नहीं है। जब इस मास से छुट्टी मिल जायेगी तब सब हाल तुमसे कहेंगे। रगू-खैर हमें इराके जानने की कोई ऐसी जलरत भी नहीं है मगर यह तो बताइये कि बिना गुलशोर मुचेकाम कैसे चल सकता है। महन्थ-यही समझने और समझाने के लिये तो मुझे लौटए पड़ा, अच्छा पहिले यह बताओ कि तुमने अपने साथ कितने आदमियों का बदोबस्त किया है? रगू- हम लोग इस समय बाईस आदमी तैयार है। जयपर महन्थ - और इस बात का भी पता लग गया है कि वे लोग काली जगह पर उतरे है। हॉ पता लग चुका है कि वे लोग गाद के बीगेवीच एक मस्जिद के अन्दर उतरे है जिसके चारों तरफ मुसलमानों के कच्चे घर है। महन्थ-यह बात और भी ताज्जुब की है ऐसा हो नहीं सकता। उसका मुसलमानों की आबादी के बीचोबीच में बल्कि एक मस्जिद के अन्दर उतरना भेद से खाली नहीं है, वह बड़ी ही चालाक और धूर्त औरत है। रगू-तब क्या करना चहिये? महन्थ -(कुछ सोच कर ) अच्छा चलो, में भी तुम्हारे साथ चलता है, वहा पहुचन पर जो कुछ राय होगी किया जायेगा। । इतना कह कर महन्थ ने आगे की तरफ घोडा बढाया और अपने साथियों सहित रमू भी घोडे के साथ ही साथ कदम बढाता हुआ रवाना हुआ। रास्ते में वे लोग धीरे-धीरे अपने मतलब की बातें करते जाते थे। घटे भर के बाद जब वे लोग उस गाव के पास पहुचे जिसमें हमारे मुसाफिरों का डेरा पड़ा हुआ था तो बने हुए सकेत की बदौलत रगू के और साथी लोग भी आ मिले और तब वे लोग एक पुल के नीचे आ ठहरे जो गाव से कुछ हट कर था और इस समय वहाँ किसी आदमी के पहुचने की उम्मीद भी नहीं हो सकती थी। जिस नदी के ऊपर वह पुल था इस समय उसका (उस स्थान का) जल सूखा रहने और अन्धकार विशेष होने के कारण उन दुष्टों को छिपे रहने का मौका अच्छा मिला। तेरहवां बयान अब हम थोडा सा हाल अपने मुसाफिरों का लिखते है जिन्होंने इस गाव में लाचार होकर डेरा जमाया था। इनके बारे में रगू ने जो कुछ महन्थ से कहा था वह एक तौर पर ठीक ही था अर्थात् उस गाव के बीचोबीच एक छोटी सी मस्जिद थी और हमारे मुसाफिरों ने उसी में डेरा जमाया था। यहा के मुसलमानों की रजामन्दी से टिकने के लिये यह स्थान ले लिया गया था। जनानी सवारी मस्जिद के अन्दर उतारी गई थी और सवारों ने उसके चारों तरफ हिफाजत के तौर पर डेरा जमाया था। एक पनिये के मार्फत तमाम जरूरी चीजें जुटाई गई थीं और खुले दिल के साथ उन चीजों की कीमत भी अदा की गई थी। इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद एक कार्रदाई और की गई अर्थात् जाहिर में तो उस औरत और प्रताप के सहित हमारे नौजवान ने मस्जिद के अन्दर डेरा जमाया था, मगर जब कुछ रात चली गई और अन्धकार ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया तब वे तीनों आदमी चुपचाप मस्जिद के अन्दर से निकल कर उस बनिये के मकान में चले गये जिसकी मार्फत उन लोगों ने रसद खरीद की थी और इसके साथ ही साथ और भी कई बातों का उन लोगों ने इन्तजाम कर लिया था। मकान के अन्दर उस औरत के आराम का पूरा-पूरा इन्तजाम करने के बाद नौजवान और प्रतापसिह पोशाक का ढग बदलकर बनिये की दुकान पर बाहर की तरफ आ बैठे जहा बनिये ने उनके लिये एक मामूली गद्दी बिछा दी थी और उनके पीछे की तरफ आले पर एक चिराग जल रहा था जिसकी धुधली रोशनी मोटी-मोटी चीजों को बताने के सिवाय किसी आदमी की सूरत पहिचानने में मदद नहीं कर सकती थी। उसी समय एक फकीर भी भीख मागता हुआ उस बनिये की दुकान पर पहुंचा और दुआ देकर एक मुट्ठी चन का सवाल किया। बनिया 1-~यह कौन सा वक्त भीख मागने का है ? तमाम गांव सो गया है तब तू भीख मागने निकला है? फकीर - बाया हम मुसाफिर आदमी है अभी लुडकते.पुड़कते आपके गाव में आये हैं, दिन भर के भूखे है। यनिया - खैर जो कुछ ही अच्छे हो, मगर इस वक्त यहा से कुछ मिलेगा नहीं, जाओ दूसरा दर्वाजा देखो। फकीर - बाया आज तो आपने नये मुसाफिरों की बदौलत बहुत कुछ पैदा किया है, उसमें से कुछ अल्लाह के नाम गी निकालो, तुम्हारा भला होगा। बनिया-(चिढ़कर) पैदा किया है तो उसमें तुम्हारे बाप का क्या? तुम भी उन्हीं के दर्वाजे पर जाओ कुछ मिल जायेगा। गुप्तगोदना १२७९