पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२८६

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- . औरग -- मगर मैंने सुना था कि कोई रामसिह नाम का आदमी आज नया तुम्हार पास आया है। भरथ-हुजूर इन्होंने थोड़ी देर के लिए अपना नाम रामसिह रख लिया था जिसमें मुझसे मुलाकात होने में किसी तरह की तकलीफ न हो। औरग - ठीक है, तो इनका तुम्हारे यहा आना बड ताज्जुब की बात है। भरथ- ताज्जुब की क्या बात है जब कि हुजूर खुद मुझे आज्ञा द चुक है कि आगरे में जिस पर तुम्हें भरोसा हो उसे अपना बनाने या बुलाने की फिक्र करो। औरग-- मगर इनके बारे में कभी तुमने जिक्र नहीं किया था। जब इन पर तुम्हें भरोसा था ता जिक्र करना भी जरूर था। भरथ-वेशक, इन पर मुझे भरोसा था, मगर इस बात की उम्मीद कम थी कि य मेरी बात मान जायगे क्योंकि ये लोग अपने इरादे के बहुत पक्के और कट्टर है। औरग - हा हो सकता है। इनके बाप इस वक्त कहा है? भरथ-वे काश्मीर की तरफ भेजे गए है, मगर दो चार रोज में हाजिर हुआ चाहत है। औरग-क्या इन्होंने इस बात का एकरार किया है कि ये लोग खुले दिल से हमारा साथ देंगे? भरथ-जी हा हुजूर औरग - इसकी जमानत में क्या भरथ-- मैनें तो इनसे कह दिया है कि तुम बतौर जमानत के अपने बाल-बच्चों की सूरत में या जहा हुजूर की मर्जी हो भेज दो। औरग- इन्होंने मजूर किया ? क्योंकि मुझसे बढ़कर इनाम देने वाला और कदर करने वाला इन्हें कोई नहीं मिल सकता। भरथ-जी हा। औरंग-लेकिन ऐसी जमानत का बन्दोबस्त करने के लिये ये यहा से जाने की इजाजत चाहेंगे । भरथ- बेशक इनके गए विना काम नहीं चल सकता। हा, अगर हुजूर जमानत का कुछ खयाल न करेंता औरग- जब तुम खुद इनकी जमानत करने के लिये तैयार हो तो मैं और किसी बात का ज्यादे खयाल नहीं कर सकता, मगर खैर सोचकर इस यात का कल जवाब दूंगा। अब तक तो उदयसिह चुपचाप बैठे दोनों की बातें सुन रहे थे मगर जव औरगजेब आखिरी बात कहकर चुप हो गया तब उदयसिह ने जुबान खोली। क्योंकि बातचीत से यह झलक रहा था कि अभी औरगजेब की तबीयत साफ नहीं हुई। उदय - भरतसिहजी को मैं अपने चचा के बराबर समझता हू और इनकी इज्जत करता हू मगर इन्होंने कुछ तो चलाकी मेरे साथ जरूर की जिसका कि मुझे रज है, जब इन्होंने मुझे खत लिखा था तब इस बात का खयालभी नहीं हुआ था कि यहा आने पर ऐसी कडी-कडी पावन्दिया मेरे ऊपर लगाई जायेंगी। उस वक्त सिर्फ मैने इतना ही सोचा था कि हम लोग क्षत्री और सिपाही आदमी है चाहे यहा रहें चाहे वहा रहे, लडने और जान देने के लिये तैयार रहना पडेगा। हा अगर मालिक कदरदान और सखी* होगा तो जीते रहने पर हम लोगों को भी मेहनत का पूरा बदला मिल जाएगा। इन्हीं चीठियों में हुजूर की तारीफें लिख-लिख कर विश्वास दिला दिया गया था कि यहा से बढकर बहादुरों की कदरदानी और हो ही नहीं सकती मगर इस बात का इशारा भी नहीं किया था कि यहा आकर तुम वेईमान समझे जाओगे और जान लडाने का पहिला इनाम यही मिलेगा कि तुम्हारे यालयच्चे जब्त कर लिये जायेंगे। इसमें तो कोई शक नहीं कि मै अपने वालवच्चों और रिश्तेदारों को उसी की अमलदारी में रखूमा जिसके साथ खुद रहूगा क्योंकि इससे बढकर और बेवकूफी होही क्या सकती है कि मै उसी के मुकाबले में लड़ने के लिए जाऊ जिसके कब्जे में बालबच्चों को रख आया होऊ, मगर हा शर्त के नाम से कुछ रज होता ही है। भरथसिहजी ने मुझ से तो तरह तरह की शर्ते करा ली है मगर खुद एक भी शर्त नहीं की और इतना भी न कहा कि तुम कोई अनूठा काम करके दिखादोगे तो तुम्हें क्या मिलेगा। (भरथसिह की तरफ देखकर) उस समय जो मैं आपसे कहता था कि मुझे जो कुछ कहना होगा हुजूर (औरगजेब) के सामने अर्ज करूगा । वे ये ही बातें थीं। मैं खूब जानता है कि इस वक्त मेरी मौत और जिन्दगी हुजूर के हाथ में है मगर इस बात की मुझे एक रत्ती भी पर्वाह नहीं है क्योंकि मै जान लडाने के लिए तो आया ही हू मगर आप भी इस बात को खूब ही जानते है कि मैं उस बहादुर आदमी का लडका हू जो बड़ी-बड़ी लडाइयों में नाम पैदा कर चुका है। हा यह बात थोड़े दिन की होने के सबब से शायद आपको मालूम न हो कि आज मेरा बाप आगरे या दिल्ली में नहीं है बल्कि अपने बालबच्चे और औरतों को साथ लेकर किसी दूसरी जगह चला गया है और इस समय दो हजार सवारों का सर्दार बना हुआ है जो वक्त पर हुजूर के लिए जान लडा सकते है। भरथ -- यह बात भी मुझे मालूम है । आपके आने के घटे ही भर पहिले इस बात की भी खबर लग चुकी है।

  • दानी।

देवकीनन्दन खत्री समग्र १२८८