पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२९०

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J म आकर कुछ सोचता हुआ टहलने लगा। सत्रहवां बयान घेचारी कुन्द बहुत ही बेढब फँसी हुई थी। वह मुसल्मानों के हाथ से बेइज्जती उठाने की बनिस्बत तडफ्तड़पकर जान दे देना पसद करती थी। यद्यपि अब उसके पास कोई हर्वा न था, जो कुछ था वह छीन लिया गया था तथापि उसे विश्वास था कि धर्म नष्ट होने के पहिले ही किसी न किसी तरकीब से वह अपनी जान दे सकती है। साथ ही इसके वह इस फिक्र में भी थी कि यहाँ से निकल भागने की कोई तरकीब हाथ आ जाय। इन डाकुओं की तरह आ पहुंचने वाले यहादुरों को यद्यपि वह जानतीन थी बल्कि उन समों के चेहरों पर नकाब पड़ी रहने के सवव से यह भी नहीं समझ सकती थी कि ये किस जाति के आदमी है तथापि उनकी बदौलत यहाँ से छुटकारा मिलने को वह गनीमत समझती थी। हो इस बात की फिक्र उसे जरूर थी कि मुझे गोद में उठाकर ले भागने वाला बहादुर कौन है कहीं ऐसा न हो कि यह गोद मेरे लिए दुखदायी बन जाय। उस समय रात बहुत कम बाकी थी जब एक नौजवान बहादुर उसे गोद में उठाकर ले भागा था। लश्कर के बाहर कुछ दूर पर एक आड़ में कई कसे-कसाए घोडे और पाँच-सात सवार मुस्तैद खडे थे। जब वह नौजवान वहाँ पहुँचा तो उसने कुन्द को एक घोडे पर बैठा दिया और आप भी उसी पर सवार होकर कुन्द को गोद में ले लिया। उसके साथियों में से भी कई आदमी उन खाली घोड़ों पर सवार हो गए तथा पहिले से जो सवार मुस्तैद थे उन सभों को साथ लिए हुए वह बहादुर जगल और पहाड़ी की तरफ तेजी के साथ रवाना हो गया। उस समय कुन्द डर चिन्ता और घवडाहट के कारण कुछ बेहोश सी हो रही थी, जब मैदान में ठडी हवा के झपेटे लग तब वह चैतन्य हुई और उसने गरदन घुमाकर आदमी के चेहर पर निगाह डाली जो उसे गोद में लिए बैठा था और जिसने इस समय अपनी नकाब पीछे की तरफ उलट दी थी। अहा कोई कह सकता है कि इस समय कुन्द उसे पहिचान कर कितनी खुश हुई होगी? यद्यपि वह नौजवान कुन्द को नहीं पहिचानता था मगर कुन्द ने निगाह पड़ते ही पहिचान लिया कि यह बहादुर उदयसिह है। चाहे इस समय कुन्द बहुत ही प्रसन्न हुई हो परन्तु लज्जा ने उससे बढकर कुन्द पर अपना दखल जमा लिया। शर्म से उसकी गर्दन घूम कर नीची हो गई और ठडी हवा के झपेटे लगते रहने पर भी उसका चेहरा पसीने से भर गया। उदयसिह भी इस बात को समझ गया और चिन्ता करने लगा कि शीघ्र ही कोई आड की और स्वतन्त्र जगह मिल जाय जहाँ हम लोग ठहर कर दो घटे आराम करें और जाने कि यह सुशीला लड़की कौन है। घटे भर दिन चढने तक ये लोग बराबर तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाए चले गये और इसके बाद ऐसी जगह पहुँचे जहा दो पहाडियों आपस में मिली हुई थी और वहाँ के पेड़ भी बहुत गुञ्जान तथा घने थे। मालूम होता है कि यह स्थान उनका जाना हुआ था और इसे वे अपने मतलब का समझते थे क्योंकि वहाँ पहुँचते ही इन लोगों ने अपने घोड़ों की तेजी रोकी और पथरीली जमीन पर धीरे-धीरे चल कर नीचे उतरे और कुन्द को भी सम्हाल कर उतारा तथा झरने के किनारे जीनपोश विछा कर उसे बैठा दिया। उसके साथी सवारों ने कुछ हट कर पेड़ों की आड में अपना डेरा जमाया। उदयसिंह ने अपना घोड़ा अपने साथियों के सुपुर्द कर दिया और इसके बाद कुन्द के पास आकर एक धोती तथा कुछ मेवा उसके पास रख कर कहा, अव तुम किसी तरह की चिन्ता न करो और यहाँ बेफिक्री के साथ जरूरी कामों से छुट्टी पाकर स्नान ओर जलपान कर लो। दो घण्टे के अन्दर ही अन्दर हमें सब कामों से छुट्टी पाकर यहाँ से चल देना चाहिए। उसकी बातों का कुन्द क्या जवाब देगी, इसका कुछ खयाल न करके उदयसिंह वहाँ से हट गया और आड़ में होकर अपने साथियों के साथ जा मिला, मगर इस बात का ध्यान रक्खा कि अकेली पड़ जाने के कारण कुन्द पर किसी तरह की आफत न आ जाय। थोड़ी देर के बाद जब उदयसिह को मालूम हो गया कि कुन्द जरूरी कामों से छुट्टी पाकर चश्मे के किनारे अपने ठिकाने पर आकर बैठ गई है, तब वह उसके पास गया और बोला, 'मैं समझता हूँ कि अब तुम सब कामों से छुट्टी पा चुकी होगी। कुन्द-(सिर झुकाए हुए) जी हाँ, अब मैं चलने के लिए तैयार हूँ, मगर क्या फिर मुझे उसी ढङ्ग में सफर करना पड़ेगा? उदय -(मुस्कुराकर) अगर उसी तरह फिर मेरे साथ घोडे पर सवार होकर तुम सफर करोगी तो उसमें हर्ज क्या है? कुन्द-(लज्जा के साथ) जी नहीं, उस समय की बात और थी और इस समय की बात और है, आखिर लज्जा को मैं क्योंकर तिलाजुली दे सकती हूँ। उदय - क्या तुम स्वय घोडे पर सवार हो सकती हो? देवकीनन्दन खत्री समग्र १२९२