पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२९३

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श्रीयुत् कृष्णचन्द्र देरी, हिन्दी प्रचारक संस्थान, पिशाचमोचन वाराणसी, पूजनीय भाई साहब, योग्य प्रणाम, पूज्य दादाजी (स्व वाबू देवकीनन्दन खत्री) के सम्बन्ध में किन्ही राजनारायण शर्मा विशारद (रामपुर अयोध्या, पो. वैनी जिला समस्तीपुर) के लिखे तीन पत्र (१) १६३८८, (२) २८३८८, (३) २०४ ८८ इस समय मेरे सामने हैं । यह तीनों पत्र आप न ही प्राप्त हुये हैं, जिनके सम्बन्ध मे आपने स्पष्टीकरण चाहा तीनों पत्रों में लिखित विवरण का अधिकांश भ्रामक । तथा वे सर्वथा भिन्न होकर अल्पग्यता का परिचायक भी है । पूज्य खत्री जी के परियार से सम्बन्धित एक सदस्य के नाते मेरी जानकारी मे जो सत्य और प्रामाणिक है, वह निम्नलिखित है। पूज्य खत्री जी के पिताश्री पूज्य लाला ईश्वरदास जी लगभग १७० वर्ष पूर्व मुलतान (आज के पाकिस्तान) से काशी अये थे । उस समय उनकी किशोरावस्या रही होगी । उनका विवाह पूसा के एक जमीदार परिवार में हुआ था। पूज्य खत्री जी अपने पिता, माता के एक मात्र पुत्र थे। इनका वाल्यकाल पूसा (बिहार) में बीता | अपने पैतृक व्यवसाय में इन्हें विहार विशेष रूप से टिकारी राज्य से बहुत सम्बन्धित रहना पड़ा था । वहा इनकी व्यापारिक गद्दी थी और ये तत्कालीन नरेश के मित्र थे। चूकि टिकारी नरेश युवावस्था मे ही स्वर्ग- पासी हुये ये इस कारण यह भी वहां का कारवार समेट कर काशी चले आये थे। तत्कालीन काशी नरेश की बहिन उन टिकारी नरेश से ब्याही थी, इस कारण से काशीनरेश भी खत्री जी वा सम्मान करते थे। टिकारी से काशी आने पर सत्री जी ने राजा साहव बनारस से चकिया नौगढ के जगलों का ठोका ले लिया और लम्बी अवधि तक यह कार्य चला 1 तब मन्त्री युवक थे । बगल और ठीके का काम इनके सम्बन्धित कर्मचारी देखते थे, इनकी विशेष रुचि प्राकृतिक दृश्यों में, उसकी शोमा निरखने में थी । खत्री जी अपने कुछ मित्रों एव सेवकों के साथ स्वयं पालकी मे बैठे जंगल के मनोहारी दृश्य यया-घाटिया, नदी, नाले, झरने, पुगने किले और खण्डहर देखने में अपना समय बिताते थे । कालान्तर में परिस्थितियो वश जंगल का ठीका छोड़कर इन्हें काशी लौटना पड़ा और यहा वह अपने पैतृक निवास, लाहौगि टोला में रहने लगे। उस समय पूज्य खत्री जी के पिता श्री जीवित थे । पूज्य खत्री जी कई भाषाओ के ज्ञाता और बहु पठित तो थे ही, ईश्वर प्रदत्त प्रतिमा भी उनमें विलक्षण और भरपूर थी। फिर राजाओ और रियासतों से भरपूर निकटता भी थी, इसलिये उनके तोर नरोके, राजनीति षडयंत्र, रहस्यों का भी इन्हें ज्ञान था । खाली समय में बैठे बैठे जंगल, पहाड, जीवन के अनुभव, इन पर आधारित दृश्य, कल्पनालोक में विचरण करते हुये, मन लाक में "चन्द्रकान्ता" का कथानक बनने लगा । तभी लेखन मुद्रण प्रकाशन का आरम्म किया । चूकि कहानी बहुत लम्बी हुई, क्रमश लिखी जाती रही, छपती रही, इसमें लम्बी अवधि बीती । उनके अन्तिम काल में (१) "भूतनाथ", (२) "गुप्त गोदना", (३) "वीरेन्द्र वीर और कटोरा भर खून' तीन पुस्तकें अधूरी रह गई थी । इनमें "चन्द्रकान्ता" सीरीज से -