पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३१२

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कि घोडे पर सवार होकर चले जाने के बाद राममोली जरूर कहीं पर इसी चश्मे के किनारे पहुची होगी और किसी सबब से यह कपडा जल में गिर पड़ा होगा। नानक चश्मे के किनारे-किनारे कोस भर के लगभग चला गया और चश्मे के दोनो तरफ उसी तरह सायेदार पेड मिलते गये यहाँ तकक दूर से उसे एक छोटे से मकान की सफेदी नजर आई। वह यह सोचकर खुश हुआ कि शायद इसी मकान में रामभोली से मुलाकात होगी कदम बढाता हुआ तेजी से जाने लगा और थोड़ी देर में उस मकान के पास जा पहुचा। वह मकानं चश्मे के बीचोबीच में पुल के तौर पर बना हुआ था। चश्मा बहुत चौडा न था उसकी चौडाई बीस-पचीस हाथ से ज्यादे न होगी। चश्मे के दोनों पार की जमीन इस मकान के नीचे आ गई थी और बीच में पानी बह जाने के लिए नहर की चौडाई के बराबर पुल की तरह का एक दर बना हुआ था जिसके ऊपर छोटा सा एक मजिला मकान निहायत खूबसूरत बना हुआ था। नानक इस मकान को देखकर बहुत ही खुश हुआ और सोचने लगा कि यह जरूर किसी मनचले शौकीन का बनवाया हुआ होगा। यहा से इस चश्मे और चारों तरफ के जगल की वहार खूब ही नजर आती है। इस मकान के अन्दर चलकर देखना चाहिये-खाली है या कोई इसमे रहता है। नानक उस मकान के सामने की तरफ गया। उसकी कुर्सी बहुत ऊँची थी, पन्द्रह सीढिया चढने के बाद दर्वाजे पर पहुचा । दर्वाजा खुला हुआ था बेधडक अन्दर घुस गया। इस मकान के चारों कोनों में चार कोठरिया और चारों तरफ चार दालान बारामदे की तौर पर थे जिसके आगे कमर बराबर ऊँचा जगला लगा हुआ था अर्थात हर एक दालान के दोनों बगल कोठरिया पड़ती थी और धीचोचीच में एक भारी कमरा था। इस मकान में किसी तरह की सजावट न थी मगर साफ था। दर्शजे के अन्दर पैर रखते ही बीच वाले कमरे में बैठे हुए एक साधू पर नानक की निगाह पड़ी। वह मृगछाले पर बैठा हुआ था। उसकी उम्र अस्सी वर्ष से भी ज्यादे होगी। उसके बाल रूई की तरह सफेद हो रहे थे लम्बे लम्बे सर के बाल सूखे और खुले रहने के सवर खूब फैले हुए थे और दाढी नाभी तक लटक रही थी। कमर में सूज की रस्सी के सहारे कोपीन थी और कोई कपडा उसके बदन पर न था गले में जनेऊ पडा हुआ था और उसके दमकते हुए चहरे पर बुजुर्गी और तपोबल की निशानी पाई जाती थी। जिस समय नानक की निगाह उस साधू पर पड़ी वह यदमासन बैठा हुआ ध्यान में मान था, आखे बन्द र्थी और हाथ जघे पर पड़े हुए थे। नानक उसके सामने जाकर देर तक खडा रहा मगर उसे कुछ खबर न हुई नानक ने सर उठाकर चारो तरफ अच्छी तरह देखा मगर सिवाय बड़ी-बड़ी दो तस्वीरों के जिन पर पर्दा पड़ा हुआ था और साधू के पीछे की तरफ दीवार के साथ लगी हुई थी और कुछ कही दिखाई न पडा। नानक को ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि इस मकान में किसी तरह का सामान नहीं है फिर महात्मा का गुजर क्योंकर चलता होगा? और ये दोनों तस्वीरें कैसी है जिनका रहना इस मकान में जरूरी समझा गया । इसी फिक में वह चारो तरफ़ घूमने और देखने लगा। उसने हर एक दालान और कोठरी की सैर की मगर कहीं एक तिनका भी नजर न आया हा एक कोठरी में वह न जा सका जिसका दरवाजा बन्द था मगर जाहिर में कोई ताला या जजीर उस दरवाजे में दिखाई न दिया मालूम नहीं हुआ वह क्योंकर बन्द था ! घूमता फिरता नानक बगल के दालान में आया और बारामर्द से झाक कर नीचे की यहार देखने लगा और इसी में उसने घण्टा भर बिता दिया । धूम-फिर कर पुन याराजी के पास गया मगर उन्हें उसी तरह आखे बन्द किए बैठा पाया। लाचार इस उम्मीद में एक किनारे बैठ गया कि आखिर कभी तो आख खुलेगी। शाम होते-होतेषगल की कोठरी से, जिसका दरवाजा बन्द था और जिसके अन्दर गना न जा सका था शख बजने की आवाज आई। नानक को बडा ही ताज्जुब हुआ मगर उस आवाज ने साधू का ध्यान तोड दिया । आखें खुलते ही नानक पर उसकी नजर पड़ी। साधू-तू कौन है और यहाँ क्योंकर आया है? नानक-मैं मुसाफिर हूँ, आफत का मारा भटकता हुआ इधर आ निकला। यहाँ आपके दर्शन हुए दिल में बहुत कुछ उम्मीद पैदा हुई। साधू-मनुष्य से किसी तरह की उम्मीद न रखनी चाहिए खैर यह बता तेरा मकान कहा है और इस जगल में,जहा आकर वापस जाना मुश्किल है कैसे आण? मानकमै काशी का रहने वाला हूँ, कार्य-वश एक औरत के साथ जो मेरे मकान के बगल ही में रहा करती थी यहाँ आना हुआ इस जगल में उस औरत का साथ छूट गया और ऐसी विचित्र बातें देखने में आई जिनक डर से अभी तक मेरा कलेजा काप रहा है। साधू-ठीक है तेरा किस्सा बहुत बड़ा मालूम होता है जिसके सुनने की अभी मुझे फुरसत नहीं है जरा ठहर मै एक चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ४ २८५