पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३२७

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art श्री चन्द्रकान्ता सन्तति पाँचवा भाग पहिला बयान बचारी किशोरी को चिता पर बैठा कर जिस समय दुष्टा धनपति ने आग लगाई उसी समय बहुत से आदमी जो उसी जगल में किसी जगह छिपे हुए थे हाथों में नगी तलवारें लिए मारो मारो कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लोगों ने सबसे पहल किशोरी को चिता पर से खैच लिया और इसके बाद धनपति के साथियों को पकड़ने लगे। पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान मलने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीतसिह से मिलन की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी मगर नहीं अपने बचाने वाले को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसक दिल का दद पहिल से भी ज्यादे चढ गया। किशोरी ने आसमान की तरफ देख कर कहा मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जल कर ठडे टडे वैकुण्ठ चली जाऊँगी क्योंकि इसकी ऑच कुँअर इन्दजीतसिह की जुदाई की ऑच से ज्यादा गर्म न होगी मगर हाय इस बात का गुमान भी न था कि यह दुष्ट आ पहुंचेगा और मै एक सचमुच की तपती हुई भट्टी में झोंक दी जाऊँगी। मौत तू कहाँ है ? तू कोई वस्तु है भी या नहीं मुझे तो इसी में शक है। वह आदमी जिसने एसे समय में पहुँच कर किशोरी को बचाया माधवी का दीवान अग्निदत्त था जिसके चगुल में फॅस कर किशोरी ने राजगृह में बहुत दुख उठाया था और कामिनी की मदद से-जिसका नाम कुछ दिनो तक किन्नरी था-छुट्टी मिली थी। किशोरी को अपने मरने की कुछ भी परवाह न थी और वह अग्निदत्त की सूरत देखने की बनिस्चत मौत को लाख दर्जे उत्तम समझती थी यही सबब था कि इस समय उसे अपनी जान बचने का रज हुआ। अग्निदत्त और उसके आदमियों ने किशोरी को तो बचा लिया मगर जब उसके दुश्मनों को अर्थात धनपति और उसके साथियों को पकडने का इरादा किया तो लडाई गहरी हो पड़ी। मौका पाकर धनपति भाग गई और गहन वन में किसी झाडी के अन्दर छिप कर उसने अपनी जान बचाई। उसके साथियों में से एक भी न बचा सब मारे गये। अग्निदत भी केवल दो ही आदमियों के साथ बच गया। उस सगदिल ने रोती और चिल्लाती हुई बेचारी किशोरी को जबर्दस्ती उठा लिया और एक तरफ का रास्ता लिया। पाठक आश्चर्य करते होंगे कि अग्निदत्त को तो राजा बीरेन्द्रसिह के ऐयारों ने राजगृह में गिरफ्तार करके चुनार भेज दिया था वह यकायक यहाँ कैसे आ पहुँचा? इसलिए अग्निदत्त का थोडा सा हाल इस जगह लिख देना हम मुनासिब समझते है। राजा बीरेन्द्रसिह के ऐयारों ने दीवान अग्निदत्त को गिरफ्तार करके अपने बीस सवारों के पहरे में चुनारगढ रवान कर दिया और एक चीठी भी सब हाल की महाराज सुरेन्द्रसिह को लिख कर उन्हीं लोगों के मार्फत भेजी अग्निदत्त हथकडी डाल घोडे पर सवार कराया गया और उसके पैर रस्सी से घोडे की जीन के साथ वाँध दिए गए घोडे की लम्बी बागडोर दोनों तरफ से दो सवारों ने पकड ली और सफर शुरू किया। तीसरे दिन जब वे लोग सोन नदी के पास पहुंचे अर्थात जब वह नदी दो कोस बाकी रह गई तब उन लोगों पर डाका पड़ा। पचास आदमियों ने चारो तरफ से घेर लिया। घण्टे भर की लड़ाई में राजा बीरेन्दसिह के कुल आदमी मारे गये खयर पहुँचाने के लिए भी एक आदमी न बचा और अग्निदत्त को उन लोगों के हाथों से छुट्टी मिली। वे डाकू सब अग्निदत्त के तरफदार और उन लोगों में से थे जो गयाजी में फसाद मचाया करते और उन लोगों की जान लेते और घर लूटते थे जो दीवान अग्निदत्त के विरुद्ध जाने जाते। इस तरह अग्निदत्त को छुट्टी मिली और बहुत दिन तक इस डाके की खबर राजा बीरेन्द्रसिह या उनके आदमियों को न मिली। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ५ ३०३