पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

yao दोनों सनापतियों न यह सोच कर कि अब विलम्ब करना मुनासिब नहीं है किले पर चढाई कर दी और दो हजार आदमियों को साथ ले नाहरसिह पहाड पर चढने लगा। यद्यपि दोनों सेनापति इस बात को समझते थे कि मेगजीन उड गई है तो भी कुछ तापखाने में जरूर होगी मगर यह खयाल उनके चढे हुए हौसल को किसी तरह रोक न सका। इधर दिग्विजयसिह अपनी जिन्दगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो बेटा। जब उसे यह खबर पहुंची कि रामानन्द दीवान या ऐयार भी मारा गया और बहुत सी तोपें भी कील ठुक जाने के कारण बर्वाद हो गई तब वह और वेचैन हो गया और मालूम होन लगा कि मौत नगी तलवार लिए सामने खड़ी है। वह पहर दिन चढे तक पागलों की तरह चारों तरफ दौड़ता रहा और तप एकान्त में बैठ कर सोचने लगा कि अन क्या करना चाहिए। जब उस जान बचाने की तरकीब ना सझी और यह निश्चय हो गया कि अव रोहतासगढ़ का किला किसी तरह नहीं रह सकता और दुश्मन लोग भी मुझे किसी तरह जोला नहीं छोड़ सकते तब वह हाथ में नगी तलवार लेकर उठा और तहखाने की ताली निकाल कर यह कहता हुआ तहखाने की तरफ चला कि 'जब मेरी जान बच ही नहीं सकती तो बीरेन्द्रसिंह और उनके लडके वगैरह को क्यों जीता छाई ? आज मैं अपने हाथ से उन लोगों का सिर काटूंगा। दिग्विजयसिह हाथ में नगी तलवार लिए हुए अकेला ही तहखाने में गया मगर जब उस दालान में पहुंचा जिसमें हथकडियों और वेडियों से कसे हुए वीरन्दसिह वगैरह रक्खे गये थे तो उसको खाली पाया। वह ताज्जुब में आकर चारों तरफ देखने और साचने लगा कि कैदी लोग कहाँ गायब हो गए। मालूम होता है कि यहाँ भी ऐयार लोग आ पहुंचे मगर दखना चाहिए कि किस राह से पहुँच ? दिग्विजयसिह उस सुरग में गया जा कविल्तान की तरफ निकल गई थी वहाँ का दर्वाजा उसी तरह बन्द पाया जैसा उसने अपने हाथ से बन्द किया था। आखिर लाचार सिर पीटता हुआ लौट आया और दीवानखाने में बदहवास होकर गद्दी पर गिर पड़ा। ग्यारहवॉ बयान इस जगह मुख्तसर ही में यह भी लिख देना मुनासिब होता है कि रोहतासगढ तहखाने में से राजा बीरेन्द्रसिह कुँअर आनन्दसिह और उनके ऐयार लोग क्योंकर छूटे और कहाँ गए। हम ऊपर लिख आए है कि जिस समय गौहर जोगिया का सकेत देकर रोहतासगढ किले में दाखिल हुई उसके थोड़ी ही देर बाद एक लम्बे कद का आदमी भी जो असल में भूतनाथ था जोगिया सकेत देकर किले के अन्दर चला गया। न मालूम उसने वहाँ क्या क्या कार्यवाई की मगर जिस समय मेगजीन उडाई गई थी उस समय वह एक चोवदार की सूरत बना राजमहल के आसपास घूम रहा था। जब राजा दिग्विजयसिह घबडा कर महल के बाहर निकला था और चारों तरफ कोलाहल मचा हुआ था वह इस तरह महल के अन्दर घुस गया कि किसी को गुभान भीन हुआ। इसके पास तीक वैसी ही ताली मौजूद थी जैसी तहखाने की ताली राजा दिग्विजयसिह के पास थी। भूतनाथ जल्दी जल्दी उस घर में पहुंचा जिसमें तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था। उसने तुरन्त दर्वाजा खोला और अन्दर जाकर उसी ताली से फिर बन्द कर दिया। उस दर्वाजे में एक ही ताली बाहर भीतर दोनों तरफ से लगती थी। कई दर्वाजों को खोलता हुआ वह उस दालान में पहुँचा जिसमें धीरेन्द्रसिह वगैरह कैद थे और राजा वीरेन्दसिह के सामने हाथ जोड कर खडा हो गया। राजा वीरेन्द्रसिंह उस समय बडी चिन्ता में थे। मेगजीन उडने की आवाज उनके कान तक भी पहुंची थी यल्कि मालूम हुआ कि उस आवाज के सदमे से समूचा तहखाना हिल गया। वे भी यही साच रहे थे कि शायद हमारे ऐयार लोग किले के अन्दर पहुंच गए। जिस समय भूतनाथ हाथ जोड़कर उनके सामने जा खडा हुआ वे चौके और भूतनाथ की तरफ देख कर बोले तू कौन है और यहाँ क्यों आया ? भूत-यद्यपि में इस समय एक चोवदार की सूरत में हूँ मगर में हूँ कोई दूसरा ही मेरा नाम भूतनाथ है मैं आप लोगों को इस कैद से छुडाने आया हूँ और इसका इनाम पहिले ही ले लिया चाहता हूँ। वीरेन्द-(ताज्जुब में आकर ) इस समय मेरे पास क्या है जो में इनाम में दूँ ? भूत-जो मैं चाहता हूँ वह इस समय भी आपके पास मौजूद है। वीरेन्द्र-यदि मेरे पास मौजूद है तो मैं देन के लिए तैयार हूँ, मॉग क्या माँगता है। भूत-यस मैं यही माँगता हूँ कि आप मेरा कसूर माफ कर दें और कुछ नहीं चाहता। वीरेन्द्र-मगर मै कुछ नहीं जानता कि तू कौन है और तूने क्या अपराध किया है जिसे मैं माफ कर दूं। भूत-इसका जवाब में इस समय नहीं दे सकता वस आप देर न करें मेरा कसूर माफ कर दें जिससे आप लोगों को यहाँ से जल्द छुडाऊँ समय बहुत कम है विलम्ब करन से पछताना पड़ेगा। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ५