पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३६१

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साधु उस ऐं पर बैठे इन तीनों की बातें सुन रहे थे। जब उन तीनों का यह बात मालूम हुई तो डरे और उन साधुओं के पास जाकर बातचीत करने लग- एक आदमी-तुम दोनों यहा क्यों बैठे हो? एक साधु-हमारी खुशी। एक आदमी-अच्छा अब हम कहते है कि उठो और यहा चले जाओ। एक साधु-तू है कौन जो मेरी बात माने? एक आदमी-(तलवार खैच कर } यह न जानना कि साधु समझ के छोड दूंगा नाहक गुस्सा मत दिलाओ ! साधु-(हँस कर ) वाह रे बन्दर धुडकी । अब क्या तू हम लोगों को साधु समझ रहा है ? इतना सुनत ही तीनो आदमियों न गौर करके साधुओं को देखा और यकायक यह कहते हुए कि हाय गजव हो गया यहाँ से भागो वहाँ से भागे जहाँ तक हो सका उन लोगों ने भागने में कसरन की। दोनों साधुओं ने उन लोगों को रोकना मुनासिब न समझा और भागने दिया। अब वे दोनों साधु वहाँ से उठे और बातें करते हुए खण्डहर के अन्दर घुसे घूमते फिरते दालान में पहुंचे और दर्वाजा खोलते हुए उस तहखाने में उत्तर गए जिसमें कामिनी थी। इस तहखाने और दर्वाजे का हाल हम ऊपर लिख आए है पुन लिखने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती. हाँ इतना जरूर कहेंगे कि रग ढग से मालूम होता था कि ये दोनों साधु तत्याने और उसके रास्ते को बखूबी जानते हैं। नहीं तो ऐसा आदमी जो दर्जि का भेद न जानता हो उस तहखाने में किसी तरह नहीं पहुंच सकता था। जब दोनों साधु तहखाने में पहुंचे तो वहाँ एक सिपाही को पाया और सन्दुक पर भी नजर पडी। एक मोमवाती आले पर जल रही थी। वह सिपाही इन दोनों को देख कर चौका और तलवार खैच कर सामना करने पर मुस्तैद हुआ। एक साधु ने झपट कर उसकी कलाई पकड ली और दूसरी ने उसकी गर्दन में एक ऐसा घूसा जमाया कि वह चक्कर खा कर गिर पड़ा। उसकी तलवार छीन ली गई और बेहोश कर चादर से जो कभर में लपेटी हुई थी उसकी मुश्क बाँध दी इसके बाद दोनों साधु उस सन्दूक की तरफ बढे । सन्दूक में ताला लगा हुआ न था बल्कि एक रस्सी उसके चारों तरफ लपेटी हुई थी। रस्सी खोली गई और उस सन्दूक का पल्ला उठाया गया, एक साधु ने मोमबत्ती हाथ में ली और झाक कर सन्दूक के अन्दर देखा देखते ही हाय कहकर जमीन पर गिर पड़ा। इसके बाद दूसरे ने देखा उसकी भी यही अवस्था हुई। पाँचवा भाग समाप्त