पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६. जिन्हें तुम कड़वाहट इसकी रगत और इसकी बू कहे देती है कि धूएँ में बहोशी का असर है। है है जरूर ऐसा ही है कुछ अमल भी आ चला और सिर भी घूमने लगा। (जोर से) अरे वहादुरों बेशक तुम लोग धोखे में डाले गए, यहाँ कोई एयार आ पहुँचा है क्या ताज्जुब है अगर तहखाने में से कामिनी को निकाल कर ले गया हो। नीम के पेड पर बैठे हुए तारासिह उस साधु की सब बातें सुन रहे थे क्योंकि वह नीम का पेड़खडहर के फाटक के पास ही था। साधु की बातें अभी पूरी न होने पाई थी कि खडहर के पिछवार्ड की तरफ से एक आदमी दौड़ता हुआ आया मालूम होता है कि साधु की आखिरी यात उसने सुन ली थी क्योंकि पहुँचने के साथ ही उसने पुकार कर कहा "नहीं नहीं, कामिनी को कोई निकाल कर नहीं ले गया मगर इसमें सन्देह नहीं कि वीरेन्दसिह के दो ऐयार यहाँ आये है. एक तहखाने के अन्दर है दूसरा ( हाथ का इशारा करके ) उस नीम के पेड़ पर चढा हुआ है। साधु-वस तब तो मार लिया। वेशक हम लोग आफत में फंस गए है परन्तु कामिनी और इन्द्रजीत लोग तहखाने में पहुंचा चुके हो अब वाहर नहीं जा सकते । ताज्जुब नहीं कि इन ऐयारों ने इन्द्रजीत को मुर्दा समझ लिया हो । देखो मै शाह दर्वाजे को अभी ऐसा बन्द करता हूँ कि फिर ऐयार का बाप भी तहखाने में न जा सकेगा। इसके जवाब में उस आदमी ने जो अभी दौड़ता हुआ आया था कहा, हमारा एक आदमी भी तहखाने में है। साधु-खैर अब तो उसका भी उसी तहखाने में घुट कर मर जाना बेहतर है। तारासिह ने उस आदमी को पहिचान लिया जो खडहर के पिछवाडे की तरफ दौड़ता हुआ आया था। यह उन्हीं दोनों आदमियों में से था जो भैरोसिंह और तारासिंह को कूए पर देखकर डर के मारे भाग गये थे, न मालूम कहा छिप रहा था जो इस समय बाबाजी को देखकर बेधडक आ पहुंचा। साधु ने धूए का ख्याल बिल्कुल ही न किया और खडहर के अन्दर जाकर न मालूम किम काठरी में घुस गया। तारासिह को कुँअर इन्दजीतसिह के मरने का जितना गम था उसे पाठक स्वय समझ सकते हैं परन्तु उनको उस समय बड़ा ही आश्चर्य हुआ। जब साधु के मुंह से यह सुना कि ताज्जुब नहीं कि ऐयारों ने इन्द्रजीतसिह को मुर्दा समझ लिया हो । बल्कि यों कहना चाहिए कि इस बात ने तारासिह को खुश कर दिया। वे अपने दिल में सोचने लगे कि बेशक हम लोगों ने धोखा खाया मगर न मालूम उन्हें कैसी दवा खिलाई गई जिसने विल्कुल मुर्दा ही बना दिया। यदि इस समय भैरोसिह के पास पहुंचकर यह खुशखबरी सुनाई जाती तो क्या ही अच्छी बात थी, मगर कमबख्त साधु तो कहता है कि मैं शाहदर्वाजा बन्द कर देता हूँ जिसमें फिर कोई आदमी तहखाने में न जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बडी मुश्किल होगी इन्दजीतसिह अगर जीते भी हैं तो अब मर जायेंगे। न मालूम यह दर्वाजा कौन है और किस तरह खुलता और बन्द होता है। वे लोग तो सुन ही चुके थे कि बीरेन्दसिह का एक ऐयार नीम के पेड़ पर चढ़ा हुआ है। बाबाजी शाहदाजा बन्द करने चले गये मगर तारासिह को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी क्योंकि वे इस बात को बखूबी जानते थे कि बेहोशी का धूआ जो इस खडहर में फैला हुआ है अब इन लोगों को ज्यादा देर तक ठहरने नदेगा थोड़ी ही देर में बेहोशी आ जायगी और फिर किसी योग्य न रहेंगे और आखिर वैसा ही हुआ। यद्यपि वे लोग ज्यादै धूए में नहीं फंसे थे तो भी जो कुछ उन लोगों की आखों में लगा था और नाक की राह से पेट में गया था वही उन लोगों को वेदम करने के लिए काफी था। ये लोग कूए पर आ पहुचे और चारों तरफ से उस नीम के पेड को घेर लिया। इस समय उन लोगों की अवस्था शराबियों को सी हो रही थी। उसी समय तारासिह ने पेड़ पर से चिल्लाकर कहा ओ हो हो हो क्या अच्छे वक्त पर हमारा मालिक आ पहुंचा। अब जकर इन कम्बख्तों की जान जायगी। . तारासिह की बात सुनते ही वे लोग ताज्जुब में आ गये और मैदान की तरफ देखने लगे। वास्तव में पूरब की तरफ गर्द उठ रही थी और मालूम होता था कि किसी राजा की सवारी इस तरफ आ रही है। उन लोगों के दिमाग पर अब बेहोशी का असर अच्छी तरह हो चुका था। वे लोग बैठ गए और फिर जमीन पर लेट कर दीन दुनिया से देखकर हो गये। तारासिंह की निगाहससीगर्द की तरफ थी। धीरे धीरे आदमी और घोड़े दिखाई देने लगे और जब थोड़ी दूर रह गये तो साफ मालूम हो गया कि कई सवारों को साथ लिए राजा वीरेन्द्रसिह आ पहुंचे। ऐयारों में तेजसिह और पडित बद्रीनाथ उनके साथ थे और मुश्की घोड़े पर सवार कमला आगे आगे आ रही थी। जब तक वे लोग खडहर के पास आवे तब तक तारासिह पेड के नीचे उतरे कूए में से एक लुटिया जल निकाल कर मुह हाथ धोया और कुछ आगे बढ़ कर उन लोगों से मिले। वीरेन्द्रसिह ने तारासिह से पूछा कहो क्या हाल है? तारा-विचित्र हाल है। वीरेन्द्र-सो क्या। भैरोसिह कहाँ है ? तारा-भैरोसिह इसी खडहर के तहखाने में है और किशोरी कामिनी तथा इन्द्रजीतसिह भी इसी तहखाने में कैद है। तारासिह ने कुँअर इन्द्रजीतसिह का जो कुछ हाल तहखाने में देखा था वह किसी से कहना |मुनासिब न समझा । देवकीनन्दन खत्री समग्न ३४०