पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४१३

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बदकिस्मती पर रो रहा था कि इतने में उस समाधि के अन्दर से एक आदमी निकला और पूरब की तरफ रवाना हुआ। मैं झटपट पेड से उतरा और पैर दबाता हुआ उसके पीछे पीछे जाने लगा इसलिए उसे मेरे आने की आहट कुछ भी मालूम न हुई। उस आदमी के हाथ में एक लिफाफा कपडे का था। उस लिफाफे की सूरत ठीक उस खलीते की तरह थी जैसा प्राय राजे और बड़े जमींदार लाग राजो महाराजों के यहाँ चीठी मेजते समय लिफाफे की जगह काम में लाते हैं। यकायक मेरे जी में आया कि किसी तरह यह लिफाफा इसके हाथ से ले लेना चाहिए इससे मेरा मतलब कुछ न कुछ जरूर निकलेगा। वह लिफाफा अंधेरी रात के सबब मुझ दिखाई न देता मगर राह चलते चलते वह एक ऐसी दूकान के पास से होकर निकला जा बास की जफरीदार टट्टी से बन्द थी मगर भीतर जलते हुए चिराग की रोशनी बाहर सड़क पर आने जाने वाले के ऊपर बखूबी पडती थी। उसी रोशनी ने मुझे दिखा दिया कि इसके हाथ में एक लिफाफा या खलीता मौजूद है। मैंने उसके हाथ से किसी तरह लिफाफा ले लेने के बारे में अपनी राय पक्की कर ली और कदम बढ़ा कर उसके पास जा पहुंचा। मैंने उसे धोखे में इस जोर से धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और मुँह के बल जमीन पर गिर पडा : लिफाफा उसको हाथ से छटक कर दूर जा रहा जिसे मैने फुर्ती से उठा लिया और वहाँ से भागा । जहाँ तक हो सका मैने मागने में तेजी की। मुझे मालूम हुआ कि वह आदमी मी उठ कर मुझे पकडने के लिए दौडा पर मुझे पान सका। गलियों में घूमता और दौडता हुआ मैं अपने घर पहुंचा और दर्वाजे पर खडा होकर दम लेने लगा। उस समय मेरे दर्वाजे पर समधनसिंह नामी मेरा एक सिपाही पहरा दे रहा था। यह सिपाही नादे कद का बहुत मजबूत और चालाक था थोडे ही दिनों से चौकीदारी के काम पर मेरे बाप ने इसे नौकर रक्खा था। मुझे उम्मीद थी कि रामधनसिह दौडते हुए आनेकाकारण मुझसे पूछेगा मगर उसने कुछ भी न पूछा। दर्वाजा खुलवा कर मैं मकान के अन्दर गया और दरवाजा बन्द करके अपने कमरे में पहुंचा। शमादान अभी तक जल रहा था। उस लिफाफे को खोलने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा था आखिर शमादान के पास जाकर लिफाफाखोला। उस लिफाफे में एक चीठी और लोहे की एक ताली थी। वह ताली विचित्र ढग की थी उसमें छोटे छोट कई छेद और पत्तियों बनी हुई थीं वह ताली जेब में रख लेने के बाद मै चीठी पढने लगा यह लिखा हुआ था - श्री १०८ मनोरमाजी की सेवा में- महीनों की मेहनत आज सफल हुई। जिस काम पर आपने मुझे तैनात किया था वह ईश्वर की कृपा से पूरा हुआ। रिक्तग्रन्थ मेरे हाथ लगा। आपने लिखा था कि- हारीत *सप्ताह में मैं रोहतासगढ के तिलिस्मी तहखाने में रहूँगी इस बीच में यदि रिक्तग्रन्थ खून से लिखी हुई किताब ) मिल जाय तो उसी तहखाने के बलिमण्डप में मुझसे मिल कर मुझे देना । आज्ञानुसार रोहतासगढ के तहखाने में गया परन्तु आप न मिलीं। रिक्तग्रन्थ लेकर लौटने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि तेजसिंह की गुप्त अमलदारी तहखाने में हो चुकी थी और उनके साथी ऐयार लोग चारो तरफ ऊधम मचा रहे थे। मैंने यह सोच कर कि यहाँ से निकलते समय शायद किसी ऐयार के पाले पड़ जाऊँ और यह रिक्तग्रन्थ छिन जाय तो मुश्किल होगी रिक्तग्रन्थ को चौबीस नम्बर की कोठरी में जिसकी ताली आपने मुझे दे रक्खी थी रख दिया और खाली हाथ बाहर निकल आया। ईश्वर की कृपा से किसी ऐयार से मुलाकात न हुई परन्तु दस्त की बीमारी ने मुझे बेकार कर दिया, मै आपके पास आने लायक न रहा लाचार अपने एक दोस्त के हाथ जिससे अचानक मुलाकात हो गई यह ताली आपके पास भेजता हूँ। मुझे उम्मीद है कि वह आदमी चौबीस नम्बर की कोठरी को कदापि नहीं खोल सकता जिसके पास यह ताली न हो अस्तु अब आपको जब समय मिले रिक्तग्रन्थ मगवा लीजिएगा और बाकी हाल पत्र ले जाने वाले के मुँह से सुनियेगा। मुझमें अव कुछ लिखने की ताकत नहीं वस अब साधोराम को इस दुनिया में रहने की आशा नहीं अब साधोराम आपके चरणों को नहीं देख सकता। यदि आराम हुआ तो पटने से होता हुआ सेवा में उपस्थित होऊँगा यदि तो समझ लीजिएगा कि साधोराम नहीं रहा। इस पत्र को पाते ही नानक की माँ को निपटा दीजिएगा। आपका-साधोराम। इस चिटटी क पाते ही मेरे दिल की मुरझाई कली खिल गई। निश्चय हो मया कि मेरी माँ अभी जीती है यदि यह चीठी ठिकाने पहुंच जाती तो उस बेचारी का यचना मुश्किल था। अब मैं यह सोचने लगा कि जिसके हाथ से यह चीठी मैंने ली है वह साधौराम था या कोई उसका मित्र परन्तु मेरी विचारशक्ति ने तुरन्त ही उत्तर दिया कि नहीं वह साधोराम नहीं था यदि वह होता तो अपने लिखे अनुसार उस सडक से आता जो पटने की तरफ से आती है। साधोराम के मरने ऐसा न हुआ 'ऐयारी भाषा में हारीत देवीपूजा को कहते हैं। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ७ ३९३