पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४३९

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ari पली गई और तरे ही सवच स आज में इस दशा को पहुची। हाय इसमे काई सन्दह नहीं कि धुर कर्मा का बुरा फल अवश्य मिलता है। हाय मुझ सी आरत जिस ईश्वर ने हर प्रकार का सुखद रक्खा या आज बुरे कर्मों की बदौलत इस अवस्था का पहुची। आह मने क्या साचा था और क्या हुआ? क्या बुर कर्म करके भी काई सुख भाग सकता है नहीं नहीं कभी नहीं दृष्टान्त बलिय स्वय में मौजूद है। मायारानी न मालूम और नी क्या क्या बकनी मगर एक आवाज न उसके प्रलाप में विघ्न डाल दिया और उसके होश हवास दुरुस्त कर दिए। किसी तरफ स यह आवाज आई- अब अफसास करन से क्या होता है दुर कर्मों का फल भागना ही पड़गा। बहुत कुछ विचारन ओर धारा तरफ निगाह दोडाने पर भी किसी के सामान आया कि यालन वाला कोन या कहा है। डर के मार सभों क बदन म कपकपी पैदा हो गई। मायारानी उठ बैठी और धनपत तथा दानो ऐयारा का समय लिए और कापत हुए कलजे पर हाच रक्खे वहा स अपन स्थान अर्थात याा के दूसर दर्जे की तरफ भागी। चौथा बयान कमलिनी की आज्ञानुसार धेहोश नागर की मठरी पीठ पर लाद हुए भूतनाव कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जा एक तालाब के बीचोबीच में था। इस समय उसकी चाल तज थी ओर दह युशी क मारे बहुत ही उमग और लापरवाही के साथ बड बड मदम मारता जा रहा था। उस दा यातां की युशी थी एफ ता उन कागजों का वह अपन हाथ स जला कर खाक कर चुका था जिनके सबब से वह मनारमा व नागर के आधीन हा रहा था और जिनका गद लोगा पर प्रकट होने के डर से अपन को मुर्दे स भी बदतर समझ हुए था दुसर उस तिलिस्मी खजर ने उसका दिमाग आसमान पर बढ़ा दिया था, और य दोना यात कमलिनी की बदौलत उसे मिली थी एक ता भूतनाथ पहिल ही भारी मक्कार एयार और हाशियार था अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था दूसर आज खजर का मालिक बन के खुशी के मारे अन्धा हा गया। उसने समझ लिया कि अव न तो उसे किसी का डर है और न किसी की परवाह। अब हम उसके दूसरे दिन का हाल लियत है जिरा दिन भूतनाथ नागर की गठरी पीठ पर लाद कमलिनी के मकान की तरफ रवाना हुआ था। भूतनाथ अपने को लोगों की निगाहो स बचाए हुए आबादी से दूर दूर जगल मैदान पगडी और पचील रास्ते पर सफर कर रहा था। दोपहर के समय वह एक छोटी सी पहाडी के नीच पहुंचा जिसके चारों तरफ मकोय और बेर इत्यादि कुटील और झाडी वाल पड़ों न एक प्रकार का हलका सा जगल बना रखा था। उसी जगह एक छोटा सा 'च्आ *भी था और पास ही में जामुन का एक छोटा सा पड़ था। अकावट और दापहर की धूप से व्याकुल भूतनाथ ने दो तीन घण्टे के लिए वहा आराम करना पसन्द किया। जागुन के पेड़ के नीचे गढरी उतार कर रख दी और आप भी उसी जगह जमीन पर चादर बिछाकर लट गया थाडी देर बाद जब सुस्ती जाती है तो उठ बैठा कूए के जल से हाथ मुह घोकर कुछ मेवा खाया जो उसके बटुए में था और इसके बाद लखलखा सुधा नागर को होशाम लाया नगर होश में आकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। जब सामने बैठे भूतनाथ पर नजर पड़ी तो समझ गई कि कमलिनी की आज्ञानुसार यह मुझे कहीं लिए जाता है। नागर-यह ता में समझ ही गई कि कमलिनी ने मुझ गिरफ्तार कर लिया और उसी की आज्ञा स तू मुझे लिए जाता है मगर यह दख कर मुझ ताज्जुब होता है कि कैदी हाने पर भी मेर हाथ पैर क्या खुल है और मरी बहाशी पचा दूर की गई? भूत-तरी बेहोशी इसलिए दूर की गयी कि जिसमें त् भी इस दिलचस्प मैदान और यहा की साफ हवा का आनन्द उठा ले। तेरे हाथ पैर बंध रहन की कोई आवश्यकता नहीं है क्योकि अब मैं तेरी तरफ से होशियार हूँ, तू मेरा कुछ भी नहीं विगाड सकती दूसर तर पास वह अगूठी भी अव नहीं रही जिसक भरासे तू फूली हुई थी तीसरे (खजर की तरफ इशारा करक) यह अनूठा खजर भी मेरे पास मौजूद है फिर किसका डर है ? इसके इलाव उन कागजों को भी मैं जला चुका जो तेर पास थ और जिनक सबब स मैं तुम लागों के आधीन हो रहा था।

  • चूआ-छोटा सा ( हाथ दो हाथ का ) गडहा जिनमें से पहाडी पानी धीर धीरे दिन रात पारही महाना निकला

करता है। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ८ ४१९ 2