पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/४८९

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asp? चन्द्रकान्ता सन्तति दसवां भाग पहिला बयान अब हन थोडा सा हाल तिलिस्म का लिखना उचित समझते है। पाठकों को याद होगा कि कुँअर इन्द्रजीतसिह रुमलिनी के हाथ से तिलिस्मी खजर लेकर उमगडहे या कुएं में कूद पडे जिसमें अपने छोटे भाई आनन्दसिह को देखा चाहते थे। जिस समय कुमार न तिलिस्मी खजकूऐं के अन्दर किया और उसका कब्जा दवाया तो उसकी रोशनी से कुएं के अन्दर की पूरी पूरी कैफियत दिखाई देने लगी। उन्होंने देखा कि कूऍ की गहराई ज्याद नहीं है बनिस्पति ऊपर के नीचे की जमीन बहुत चौडी मालूम पड़ी और किनारे की तरफ एक आदमी किसी को अपने नीचे दबाये हुए बैठा उसके गले पर खजर फेरा ही चाहता है। कुँअर इन्दजीतसिंह को यकायक खयाल गुजरा कि यह जुल्म कहीं कुँअर आनन्दसिंह पर ही न हो रहा हो । छोटे भाई की सच्ची मोहब्यत ने एसा जोश मारा कि वह अपने को एक पल के लिए भी रोक न सके क्योंकि साथ ही इस बात का भी गुमान था कि देर होने से कहीं उसका काम तमाम न हो जाय इसलिए बिना कुछ सोचे और बिना किसी से कहे सुने इन्दजीतसिंह उस गडह में कूद पड़े। मालूम हुआ कि वह किसी धातु की चादर पर जो जमीन की तरह से मालूम होती थी गिरे है क्योंकि उनके गिरने के साथ ही वह जमीन तीन दफेलयकी और एक प्रकार की आवाज भी हुई। चमकता हुआ एक तिलिस्मी खजर उनके हाथ म था जिसकी रोशनी से और टटोलने से मालूम हुआ कि वे दोनों आदमी तास्तव में पत्थर के बने हुए है जिन्हें देखकर वे गडह के अन्दर कूदे थे। इसके बाद कुमार ने इस विचार से ऊपर की तरफ देखा कि कमलिनी या राजा गोपालसिह का पुकार कर यहाँ का कुछ हाल कहें मगर गडहे का मुँह बन्द पाकर लाचार हो रहे। ऊँचाई पर ध्यान देने से मालूम हुआ कि इस गड़हे का उपर वाला मुँह बन्द नहीं हुआ बल्कि बीच में कोई चीज ऐसी आ गई है जिससे रास्ता बन्द हो गया है। कुमार ने तिलिस्मी खजर का कब्जा इसलिए दीला किया कि वह रोशनी बन्द हा जाय जो उसमें से निकल रही है और मालूम हो कि इस जगह बिल्कुल अन्धेरा ही है या कहीं से कुछ चमक या रोशनी भी आती है पर वहाँ पूरा अन्धकार था हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था, अस्तु लाचार हाकर कुमार ने फिर तिलिस्मीखजर का कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई। उसी रोशनी में कुमार ने चारों तरफ इस आशा से देखना शुरू किया कि किसी तरफ आनन्दसिंह की सूरत दिखाई पडे सिवाय एक चाँदी की सन्दूक के जो उमी जगह पड़ा हुआ था और कुछ दिखाई न दिया। यहाँ तीन तरफ पक्की दीवार थी जिसमें छोटे छोटे दर्वाजें और एक तरफ जाने का रास्ता इस ढग का था कि हर तौर पर सुरग कह सकते हैं कुमार उसी सुरग की राह आगे की तरफ बढे मगर ज्यों ज्यों आगे जाते थे सुरग पतली होती जाती थी और मालूम होता था कि हम उँनी जमीन पर चढ़े चले जा रहे है। लगभग सौ कदम जाने के बाद सुरग खत्म हुई और अन्त में एक दर्वाजा मिला जो जजीर से बन्द था और कुडे में एक ताला लगा हुआ था। कुमार ने खजर मार के जजीर काट डाली और धक्का देकर दर्वाजा खोला तो सामने उजाला नजर आया। अब तिलिस्मी खजर की कोई आवश्यकता नहीं थी इसलिए उसका कब्जा दौला किया और दर्वाजा लाध कर दूसरी तरफ चले गये। कुमार ने अपने को एक हरे-भरे बाग में पाया और देखा कि वह बाग मामूली लौर का नहीं है बल्कि उसकी बनावट विचित्र ढग की है फूलों के पेड बिल्कुल नयेपर तरह तरह के मेवों के पेड़ लगे हुए थे। हर एक पेड के चारों तरफ दो दो हाथ ऊँगी दीवार घिरी हुई थी और बीच में मिट्टी भरने के कारण खासा चबूतरा मालूम पडता थाइसके अतिरिक्त अर्थात पेड़ों के चबूतरों को छोड़ कर बाकी जितनी जमीन उमबाग में थी सब पर संगमरमर का फश था। पूरब नरफ से एक नहर बाग के अन्दर आई हुई थी और पन्द्रह वीस हाथ के बाद छोटी-छोटी शायों में फैल गई थी। जो नहर बाग के अन्दर आई थी उसकी चोडाई ढाई हाय से कम न थी मगर बाग के अन्दर सगमरमर की छोटी-छोटी सैकड़ों नालियों में उसका जल फैल गया था उन नालियों के दोनों तरफ की दीवार तो सगमरमर की थी मगर धीच की जमीन पक्की न थी और इसी सवय से यहाँ की जमीन बहुत तर थी और पेड सूखने नहीं पाते थे वाग के चारों तरफ उँची दीवार तथा पूरब तरफ एक दालान और कई कोरियॉ थी पश्चिम तरफ की दीवार के पास एक सगीन कूऔं था और बाग के बीचोबीच में एक मन्दिर था। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १० ३१