पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५

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ari 1 5 जालसाजों के बीच चलने वाली कथा क्रोध, क्रूरता और हत्याओं से बहुत ही वचकर चलती है। इसे खत्री जी को उपन्यासों की एक महत्वपूर्ण खूवी कहनी चाहिए। किंतु क्रोध रहित क्रांति की बात अभी पूरी नहीं हुई है । खत्री जी की क्रांति के कई आयाम हैं । एक आयाम की चर्चा बार-बार आती है कि इनके उपन्यासों ने हिंदी रचना संसार में ऐसा चमत्कार पैदा किया कि लोगों को हिंदी सीखने के लिये मजबूर होना पड़ा। चंद्रकांता और चन्द्रकांता संतति पढ़ने के लिये लोग हिंदी सीखने लगे। विना किसी बैर विरोध या जोर जबर्दस्ती के साहित्य की दुनिया में खत्री जी का डंका बजने लगा । वे कथा साहित्य के वादशाह हो गये। क्या यह कम क्रांतिकारी बात है ? बिना किसी जद्दोजहद के न केवल कि खत्री जी बादशाह बने बल्कि बेचारी हिंदी भी प्रतिष्ठित हुई। खत्री जी के उपन्यास हिंदी की सीमा लांघ गए। हर राज्य और हर स्तर के पाठकों पर छा गए। बाद में जब पाठकों की रुचि बदली तब भी किसी ने विरोध नहीं किया । जिस सहजभाव से ऐयार और तिलस्म आए थे उसी सहज भाव से कम होने लगे। शायद खत्री जी भी इस बात को जानते थे। इसीलिये उनके उपन्यासों का एक तत्व तिलिस्मी तोड़ना भी है । समय के प्रवाह में तिलस्म टूटे। किंतु टूटकर भी वे मौजूद हैं । एक बार जो स्थापित हो गया वह टूटकर भी कितना टूटेगा ? किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है । आज भी इन उपन्यासों की पाठक संख्या कम नहीं है । प्रबुद्ध वर्ग चाहे जो सोचता हो किंतु सरल उत्सुकता पूर्ण जीवन के पाठकों की कमी नहीं है। इन्हें आज भी ये उपन्यास आनंद देते हैं। बहुत थोड़े से लेखक हैं जो पाठक को चंद्रकांता और संतति सा पकड़ते हैं। जो भी पाठक एक बार खत्री जी के कमंद में बंधकर या भूल से भी तिलस्म में घुसा कि उसका निकलना कठिन । खत्री जी के ऐयार हर क्षण घूमते हैं। इनकी कोई भी चीज सूंघी नहीं कि होश गायब । फिर दुनिया का कोई भी लकलका पाठक को होश में नहीं ला सकता। ऐयारी, तिलस्म, लकलका, बटुआ आदि के कारण कभी-कभी इन उपन्यासों को बहुत हलका समझने की कोशिश हुई है । किन्तु इन उपन्यासों की दुनिया कुछ असामान्य है। इनका समाज और मनोविज्ञान असामान्य है। आवश्यकता है इस असामान्य को सहानुभूति देकर समझने की। किंतु देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को समझने के पूर्व हमें खत्री जी का परिचय जानना आवश्यक है। रचना के साथ रचयिता को जानना हर वार आवश्यक नहीं। उससे कभी-कभी असुविधा भी हो सकती है। नासमझी आ सकती है। किंतु देवकीनंदन खत्री के साथ ऐसी बात नहीं है । उलटे खत्री जी का जीवन, उनका रहन-सहन, विचरण और कार्यक्षेत्र हमें उनके उपन्यासों को समझने में सहायता देते हैं। देवकीनंदन खत्री के पूर्वज कभी मुल्तान में रहते थे । किंतु इनके पिता लाला ईश्वरदास काशी आकर रहने लगे थे। विवाह के बाद ईश्वरदास अपनी ससुराल पूसा. मुजफ्फरपुर में रहने लगे। वहीं १८ जून सन् १८६१ को (आपाढ़ कृष्ण ७ सें. १९१८) देवकीनंदन खत्री का जन्म हुआ। इनकी एक कोठी गया में भी थी। बनारस के राजा ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह की बहन गया के टिकारी राज्य में व्याही थी। देवकीनंदन- खत्री अपने व्यापार के सिलसिले में अक्सर टिकारी जाया करते थे। वहीं इनका संबंध काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह से हुआ। ये महाराज के अत्यंत कृपापात्र हो गए। इससे इन्होंने चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठीका लिया । इस ठीके के कारण इन्हें यहाँ के जंगलों और खंडहरों में घूमने का पर्याप्त मौका मिला। खुद भी घूमते । मित्र मंडली भी घूमती । यह एक ढंग का रोमानी उत्साह भी रहा होगा। देवकीनंदन जी की मित्र मंडली में कई रियासतों के राजा, कितने ही फकीर, औलिया और तंत्र साधक थे । सुनने में यह मेल विचित्र लग सकता है किंतु इसमें कोई (vi)