पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५१३

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art -- दारोगा-वेशक ऐसा ही है और मैं उसका बहुत भरोसा रखता है। उसकी बदौलत मैं अपनेको राजा से भी बढ के अभीर समझता हू और वीरेन्द्रसिह की कैद से छूट कर आजादी के साथ घूमने का दिन भी उसी के उद्योग से मिला जिसका हाल में फिर कभी तुमसे कहगा। वह बडा ही धूर्त एव बुद्धिमान और साथ ही इसके ऐयाश भी है। माया-उम्र में आपसे बडे है या छोटे? दारोगा-ओह मुझसे बहुत छोटा है रल्कि यों कहना चाहिए कि अभी नौजवान है यदन में ताकत भी खूब है रहने का स्थान भी बहुत ही उत्तम और रमणीक है मेरी तरह फकीरी भेष में नहीं रहता बल्कि अमीराना ठाट के साथ रहता है। दारोगा की बात सुन करमायारानी के दिल में एक प्रकार की उम्मीद और खुशी पैदा हुई, ऑखों में विचित्र धमक और गालों पर सुखीं दिखाई देने लगी जो क्षण भर के लिए थी, इसके बाद फिर मायारानी ने कहा- माया-यह आपकी कृपा है कि ऐसी बुरी अवस्था तक पहुंचने पर भी मैं किसी तरह निराश नहीं होसकती। दारोग-जय तक मैं जीता ओर तुझसे खुश हू तब तक तो तू किसी तरह निराश कभी भी नहीं हो सकती मगर अफसोस अभी तीन ही चार दिन हुए है कि इसके पास से तरी खोज में गया था आज मेरी नाक कटी देखेंगा तो क्या कहेगा? माया-यशक उन्हें बडा क्रोध आवेगा जब आपकी जुबानी यह सुनेंग कि नागर ने आपकी यह दशा की। दारोगा-काघ । अर तूदखेगी कि नागर को पकडवा मगवावेगा और बडी दुर्दशा से उसको जान लेगा। उसके आग यह कोई बड़ी नहीं है । लो अब हम लोग ठिकाने आ पहुँचे अव घोडे से उतरना चाहिए। इस जगह पर एक छोटी सी पहाडी थी जिसके पीछ की तरफ और दाहिने बाए कुछ चक्कर खाता हुआ पहाड़ियाँ का सिलसिला दूर तक दिखाई दे रहा था। जब ये दोनों आदमी उस पहाडी के नीचे पहुंचे तो घोडे से उतर एडे क्योंकि पहाडीक ऊपर घोडा ले जाने का मौका न था और इन दोनों को पहाड़ी के ऊपर जाना था। दोनों घाडे लम्बी लम्बी बागडोरों के सहारे एक पेड़ के साथ बाध दिये गये और इसके बाद मायारानी को साथ लिए हुए दारोगा ने उस पहाडी के ऊपर चढना शुरु किया । उस पहाडी पर चढ़ने के लिए केवल एक पमडण्डी का गस्ता था और वह भी बहुत पथरीला और एसा ऊबड़-खाबड था कि जाने वाले को बहुत सम्हल कर उढना पड़ता था। यद्यपि पहाडी बहुत ऊची न थी मगर रास्ते की कठिनाई के कारण इा दानों को ऊपर पहुँचने तक पूरा एक घटा लग गया। जब दानों पहाड़ी के ऊपर पहुचे तो मायारानी ने एक पेड़ के नीचे खडे होकर देखा कि सामने की तरफ जहा तक निगाह काम करती है पहाड ही पहाड दिखाई दरहे है जिनकी अवस्था आसाढ़ के उद्धते हुए बादलों सी जान पड़ती है। टीले पर टीला पहाड पर पहाड, क्रमश बरावर ऊचा ही होता गया है। यह वही विंध्य की पहाडी है जिसका फैलाव सैकडो कास तक चला गया है। इस जगह से जहा इस समय मायारानी खडी होकर पहाडी के दिलचस्प सिलसिले को बड़े गौर से दख रही है राजा वीरेन्दसिह की राजधानी नौगढ बहुत दूर नहीं है परन्तु यह जगह नौगढ की हद से बिल्कुल बाहर है। धूप बहुत तेज थी और भूख प्यास ने भी राता रक्खा था इसलिये दारोगा ने मायारानी से कहा मै समझता हू कि इस पहाड पर चढने की थकावट अब मिट गई होगी यहाँ देर तक खडे रहने से काम न चलेगा क्योंकि अभी हम लोगों. को कुछ दूर और चलना है और मूख प्यास से जी बेचैन हो रहा है।' माया-क्या अभी हम लोगों कोऔर आगे जाना पड़ेगा? आपने तो इसी पहाडी पर इन्द्रदेव का घर बताया था। दारोगा-ठीक है मगर उस्का मतलब यह न था कि पहाड़ पर चढ़ने के साथ ही कोई मकान मिल जायगा। पाया-खैर चलिए अब कितनी देर में ठिकान पहुँचन की आशा कर सकती है? दारोगा-अगर तेजी के साथ चलें तो घण्टे भर में। माया-ओफ । आग आगदारोगा और पीछे पीछे मायारानी दोनों आगे । तरफ चढे। ज्यों ज्यों आगे बढत जान थे जमीन ऊँची मिलती जाती थी और चढाव चढने के कारण मायारानी का दम फूल रहा था। वह थोडी थोड़ी दूर पर खड़ी होकर दम लेती थी और फिर दारोगा क पोछ पीछे चल पड़ती थी यहाँ तक कि दोनों एक गुफा के मुंह पर जा पहुंचे जिसके अन्दर खडे हाकर बराबर दो आदमी बखूबी जा सकते थे। बाबाजी न मायारानी से कहा कि अब हम लोगों को इसके अन्दर चलना पडगा जिसके जवाब में मायारानी ने कहा कि क्या हर्ज है में चलने को तैयार हू मगर जरा दम ले लूँ! गुफा के दानों तरफ चौडे चौडे दो पत्थर थे जिनमें से एक पर दारोगा और दूसर पर मायारानी थैठ गई। इन दोनों कोठे अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी कि गुफा के अन्दर से एक आदमी निकला जिसने पहिली निगाह में मायारानी को और दूसरी निगाह में दारोगा को दखा । मायारानी को देख कर उस ताज्जुब हुआ मगर जब दारोगा को देखा ता झपट कर उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला आश्चर्य है कि आज मायारानी को लेकर आप यहाँ आये है । - i चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १० ५०५