पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

18 भी लटक रही थी और हाथ में कोई चीज थी जो कपडे के अन्दर लपेटी हुई थी। यह सब कुछ था मगर उसके सर पर टोपी पगडी या मुंडासा इत्यादि कुछ भी न था अर्थात वह सिर से नगा था। यह आदमी जिस ढग और चाल से घूम कर भूतनाथ के सामने आ खडा हुआ उससे मालूम होता था कि इसके बदन में पूर्ती और चालाकी कूट कूट कर भरी हुई है। कई सायत तक भूतनाथ चुपचाप गौर से उसकी तरफ देखता रहा और वह भी काठ की तरह खड़ा रहा। आखिर भूतनाथ ने कहा “क्या तुम बहुत देर से हमारे साथ हो? आदमी - बहुत दर ही नही बल्कि बहुत दूर से भी। भूत- ठीक है मैने रास्ते में तुम्हें एक झलक दखा भी था। आदमी -- मगर कुछ योले नहीं और मै भी यह साच कर छिप गया कि कमलिनी क सामन कहीं तुम्हारी बेइज्जती न हो। भूत और ताज्जुब नहीं कि यह भी सोच लिया हा कि इस समय मूतनाथ अकेला नहीं है। आदमी-- शायद यह भी हा (हस कर) मगर सच कहना क्या तुम्हें विश्वास था कि कभी मुझे फिर अपने सामने देखोग? भूत -- नहीं कभी नही स्वप्न में भी नहीं -

V आदमी -- अच्छा ता फिर आज का दिन बहुत मुबारक समझना चाहिय। यह कह कर वह चडजार से हसा। भूत- आज का दिन शायद तुम्हार लिए मुबारक हो मगर मेर लिए ता बडा ही मनहूस है। आदमी - इसलिए कि तुम मुझे मरा हुआ समझते थ? भूतनाथ - कवल भरा ही हुआ नहीं बल्कि पञ्चतत्व म मिल गया हुआ आदमी - और इसी स तुमनिश्चिन्तय नथा समस्त य कि तुम्हार सच्चे दापों का जानने वाला दुनिया में कोई नहीं रहा भूतनाथ -- अब मुझ अपन दाषा प्रकट हान का डर नहीं है क्योंकि राजा धोरेन्दसिह और उनके लडकों तथा एयारों की तरफ से मुझे माफी मिल गई है। आदमी-किसकी बदौलत? भूत-कमलिनी की बदौलत । आदमी- ठीक है गरउस साहागिन की तरफ से तुम्हें माफी न मिली होगी जिसने अपना नाम तारा रक्या हुआ है बल्कि उसे इस बात की खबर भी न होगी कि तुम उसक भूत - ठहरा ठहरो तुम्हे इसका खयाल रख क काई नाजुक बात कहनी चाहिये कि मेर सिवाय कॉई और सुनने वाला तो नहीं है। आदमी ~ कोई जरूरत नहीं कि मैं इस बात का ध्यान रक्खू। मै अन्धा नहीं है इसलिए इतना तो तुम्हें विश्वास हो होना चाहिय कि भगवानी मेरी ऑखो की आड़ में न होगी। भूत-खैर ता भगवानी के सामन जरा सम्हल क बातें करा। आदमी - सो कैसे हो सकता है ? मैं दिना बाते किय टल नहीं सकता और तुम कमलिनी के डर से नगवानी का विदा नहीं कर सकत। अच्छा देखो मैं तुम्हारी इज्जत का ख्याल करके नगवानी को विदाकर देता हू (भगवानी से) 'जा रे तू यहा से चली जा जहा तेरा जी चाहे चली जा । भूत-(काप कर ) नहीं नहीं एसा न करो । आदमी- मै तो ऐसा ही करुगा ( भगवानी स) जा रे त जाती क्यों नहीं ? क्या मौत के पजे से बचना तुझे अच्छा नहीं लगता ॥ भूत | ~~ मे हाथ जोडता हू, माफ करो जरा सोचो ता सही। आदमी - तुमने उस वक्त क्या साचा था कि अब मैं सोचू ? भूत - अच्छा तबएक काम करा इसक हाथ पैर वाध कर अलग कर दो फिर हम याते कर लेंगे। आदमी - (भगवानी से) क्यों र हाथ पैर बधवा जान देना मजूर है या भाग जाना पसन्द करती है ? इस आदमी और भूतनाथ की बातें सुन भगवानी को बडा आश्चर्य हो रहा था। वह सोच रही थी कि क्या सबब है जो यह अद्भुत मनुष्य वात घात म भूतनाथ को दवाये जाता है। इसके मुंह से जितने शब्द निकलते है सब हुकूमत और देवकीनन्दन खत्री समग्र