पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५५५

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६ आधा घण्टा सफर करने के बाद देवीसिह उस जगह पहुचे जहाँ एक पेड के साथ दोनों घोडे बधे हुए थे वहा से योड़ी दूर पर एक घश्मा बह रहा था देवीसिह दोनों घोड़ों को वहाँ ले गये और पानी पिलाने के बाद लम्बी बागडोर के सहारे पेड़ों के साथ बाँध दिया जहा उनके चरने के लिए लम्बी घास बहुतायत के साथ जमी हुई थी। देवीसिह ने सोचा कि यद्यपि कुसमय है मगर फिर भी वहा अवश्य चलना चाहिए जहा भगवानी को छोड आये थे शायद भूताथ या श्यामसुन्दरसिह से मुलाकात हो जाय अगर किसी से मुलाकात हो गई तो कह देंगे कि आज प्रतिज्ञानुसार इस जगह कमलिनी से मुलाकात न होगी। अगर यह काम हो गया तो रात के समय पुन वीमारों को छोड के इस तरफ आने की आवश्यकता न पड़ेगी। इन बातों को सोच कर देवीसिह वहा से आगे की तरफ बढे मगर सौ कदम से ज्यादे दूर न गये होंगे कि सामने की करफ से किसी के आने की आहट मालूम पड़ी। देवीसिह ठहर गये और बड़े गौर से उधर देखने लगे जिधर से किसी के आने की आहट मिल रही थी। थोड़ी ही दर में दा आदमी निगाह के सामने आ पहुचे जिनमें से एक को देवीसिह पहिचानते घे और दूसरे को नहीं, पाठक समझ गये होंगे कि उन दोनों में से एक तो भूतनाथ था और दूसरा दही विचित्र आदमी जिसने भूतनाथ पर अपना अधिकार कर लिया था और जो उसे इस समय अपने साथ न मालूम कहा लिये जाता था। देवीसिंह ने भूतनाथ के उदास और मुझाये चेहरे को बड़े गौर से देखा और फिर आगे बढ़ कर उससे पूछा- देवी-क्यों साहब आप कहा जा रहे हैं और वह आपका साथी कौन है? भूत-(अपने साथी की तरफ इशारा करके ) इन्हें आप नहीं जानते इनके साथ मै एक जरूरी काम के लिये जा रहा ह, आप कमलिनीजी से कह दीजियेगा कि आज रात को प्रतिज्ञानुसार मै उनसे मिल नहीं सकता। देवी-सो क्यों? भूत-इसलिए कि इनके साथ जाता है, क्या जाने काय छुट्टी मिले । देवी- इनके साथ कहाँ जाते हा? भूत-(घबराहट और लाचरी के ढग से) सो तो मुझे मालूम नहीं |इतना कहके उसने एक लम्बी सॉस ली। अब देवीसिह के दिमाग में वे बातें घूमने लगी जो भूतनाथ के विषय में कमलिनी ने कही थी। देवीसिह ने भूतनाथ की कलाई पकड ली और एक तरफ ले जाकर पूछा दोस्त क्या तुम इतना भी नहीं बता सकते कि कहा जा रह हो ? ऐयार लोगों का आपुस में क्या ऐसा ही वर्ताव होता है। क्या तुम और हम दोनों एक ही पक्ष के नहीं है और क्या तुम अपने दिल की बातें मुझस भी नहीं कह सकते ? चोलो-बालो भेरी बातों का कुछ जवाब दो वाह-वाह यह क्या तुम रो क्योंरहे हो? भूत--(आखों से आसू पोछ कर) हाय मै कुछ भी नहीं कह सकता कि मेरे दिल की क्या अवस्था है। (मुहब्बत से देवीसिह का हाथ पकड क) मै तुमको अपना बड़ा भाई समझता हू, और तुम इस बात का अपने दिल में ध्यान भी न लाना कि भूतनाथ तुम्हारे साथ चालबाजी की बातें करेगा मगर हाय मै मजबूर हू कुछ नहीं कह सकता (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके ) मे और मेरा सर्वस्व इस हरामजादेकी मुद्री में है और छुटकारे की कोई आशा नहीं अफसोस ! अच्छा दोस्त अव मुझे विदा दो अगर जीता रहा तो फिर मिलूगा । देवी- भूतनाथ तुम कैसी वे सिर पैर की बातें कर रहे हो कुछ समझ में नहीं आता 'आश्चर्य है कि तुम्हारे ऐसा यहादुर आदमी और इस तरह कीवातें करे । साफ-साफ कहो तो कुछ मालूम हो कदाचित् मै तुम्हारी कुछ मदद कर सकू। भूत-नहीं तुम कुछ भी मदद नहीं कर सकते मेरा नसीच बिगडा हुआ है और इसे वही ठीक कर सकता है जिसने इसे बनाया है। देवी-मैं इस बात को नहीं मानता नि सन्देह ईश्वर सबके ऊपर है परन्तु साथ ही इसके यह भी समझना चाहिए कि वह किसी को बनाने और बिगाडने के लिए अपने हाथ पैर से काम नहीं लेता यदि ऐसा करे या हो तो उसमें और मनुष्य में काई भेद कहने के लिए भी बाकी न रह जाय अतएव कह सकते है कि केवल उसकी इच्छा ही इतनी प्रबल है कि वह किसी तरह टल नहीं सकती और वह इस पृथ्वी का काम इसी पर रहने वालों से कराता रहता है। इसका तत्व यह है कि वह जिस मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी किया चाहता है उसके अन्दर उस बुद्धि और साहस का सचार करता है जिसका मुकाबला करने वाला पृथ्वी मै सिवाय बुद्धि और साहस के और कोई नही इसके साथ ही साथ जिससे वह रुष्ट होता है उससे बुद्धि और साहस छीन लेता है। इस इन्हीं दो बातों द्वारा वह अपनी इच्छा पूरी करके नित्य नवीन नाटक देखा करता है और यही उसकी कारीगरी है। मै इस समय जब अपनी तरफ ध्यान देता हूँ तो ईश्वर की कृपा से अपने में साहस की कमी नहीं देखता और दिल को तुम्हारी मदद के लिए व्याकुल पाता हूँ और इससे निश्चय होता है कि मैं तुम्हारी सहायता कर सकता है और यही ईश्वर की इच्छा भी है। तुम एकदम हताश मत हो जाओ और जान बूझ के अपनी जान के दुश्मन मत बनो असल-असल हाल कहो फिर देयों कि मैं क्या करता है। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग ११