पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५९५

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2 यदि ऐसा न मी हुआ तो भी दिल की अवस्था छिपाने के लिए बहुत उद्योग करना पड़ेगा तथा उनके नाजुक कलेज को तकलीफ पहुचेगी जिससे वह लज्जित होगी। इससे इन लोगों का परदे के अन्दर हो बैठना उचित होगा। बेशक यही बात है और बड़ों का ऐसा ख्याल होना ही चाहिये। रात पहर भर से ज्यादे हो चुकी है। महल के एक छोटे से मगर दोहरे दालान में राशनी अच्छी तरह हो रही है। दालान के पहिले हिस्से में बारीक चिक का परदा गिरा हुआ है और भीतर पूरा अधकार है। किशोरी कामिनी लक्ष्मीदेवी कमलिनी लाडिलो और कमला उसी के अन्दर बैठी हुई है। बाहरी हिस्से में जिसमें रोशनी बखूबी हो रही है राजा वीरेन्द्रसिह की गद्दी लगी हुई है उनके बगल में बलमदसिह बैठे हुए है दूसरे बगल में कागजों की गठरी लिए हुए तजसिह विराजमान है और बाकी के ऐयार लोग (भैरोसिह को छोड के) दोनों तरफ दिखाई दे रहे है तथा सभी की निगाहे सामने के मैदान पर पड़ रही हैं जिधर से हथकडी येडी से मजबूर भूतनाथ को लिए हुए देवीसिह चले आ रहे है। भूतनाथ ने आने के साथ ही झुक कर राजा वीरेन्द्रसिह का सलाम किया और कहा- भूत-व्यर्थ ही बात का बतगड बना कर मुझे सासत में डाल रक्खा गया है मगर मूतनाथ ने भी जिसने आप लागों को खुश रखने के लिये कोई बात उठा नहीं रक्खी इस बात का प्रण कर लिया था कि जब तक राजा वीरेन्दसिह का सामना न होगा अपने मुकदमे की उलझन को खुलने न देगा। वीरेन्द-बेशक इस बात का मुझे भी यहुत रज है कि उस मूतनाथ के ऊपर एक भारी जुर्भ ठहराया गया है जिसकी कारवाइयों को सुन सुन कर हम खुश हाते थे और जिसे मुहब्बत की निगाह से देखने की अभिलाषा रखते थे। भूत-अगर महाराज को इस बात का रज है तो महाराज निश्चय रक्खें कि भूतनाथ महाराज की नजरों से दूर किए जाने लायक सावित न होगा। (इधर उधर और पीछे की तरफ देख के) मगर अफसोस हमारा मददगार अभी तक नहीं पहुचा न मालूम कहा अटक रहा । इतने में सामने की तरफ से वही जिन्य आता हुआ दिखाई पड़ा जिसे तेजसिह पहिले देख चुके थे और जिसका हाल राजा वीरेन्द्रसिंह से भी कह चुके थे। इस जिन्न की चाल आजाद चेफिक्र और निडर लोगों की सी थी जो धीरे धीर चल कर उसी दालान में आ पहुचा और चुपचाए एक किनार खड़ा हो गया। उसके रग ढग और उसकी पाशार्क का हाल हम एक जगह बयान कर आए है इसलिए पुन लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। यद्यपि जिन्न आश्चर्यजनक रीति से यकायक वहा आ पहुचा था और उसको इस बात का गुमान था कि हमारा आना लोगों को बडा ही आश्चर्यजनक मालूम होगा मगर ऐसा न था क्योंकि तेजसिह को इस बात की खबर पहिले ही दिन हो चुकी थी जब वे जिन्न और भूतनाथ के पीछ पीछे जा कर उनकी बात सुन आये थे और तेजसिह ने यह हाल राजा वीरेन्द्रसिह अपने साथियों और कमलिनी लक्ष्मीदवी वगैरह से भी कह दिया था अतएव जिन्न के आने का सब कोई इन्तजार ही कर रहे थे और जब वह आ गया तो उसकी सूरत गौर से देखने लगे। वीरन्दसिह का इशारा पा कर देवीसिह न उस जिन्न से पूछा- देवी-महाराज की इच्छा है कि तुम अपना नाम और यहॉ आन का सवय यताओ। जिन्न-मरा नाम कृष्णाजिन्न है और मै भूतनाथ का विचित्र मुकद्दमा सुनने तथा अपने एक पुराने मित्र से मिलने आया है। देवी-( आश्चय से ) क्या भूतनाथ के अतिरिक्त कोई दूसरा आदमी भी तुम्हारा मित्र है ? जिन्न-हा। देवी-और वह है कहा? जिन्न-इसी जगह आप लोगों के बीच ही में। देवी-अगर ऐसा है तो तुम उस अपने पास बुलाओ और बातचीत करो। जित-इससे आपको कोई मतलब नहीं जब मौका आवेगा ऐसा किया जायगा। देवी-ताज्जुब है कि तुम किसी का कुछ ख्याल न करक यअंदवी से बातचीत करते हो क्या हम लोगों के साथ तुम्हें किसी तरह की दुश्मनी या रज है 7 या दुश्मनी पैदा किया चाहते हो? जिन्न-दुश्मनी यिना डाह डर और रज के पैदा नहीं होती और हमारे में ये तीनों बातें छू नहीं गई है। न तो हमें किसी का डर है न किसी को डराने की इच्छा है न किसी का कुछ देते है और न किसी से कुछ चाहते है न कोई हमारा कुछ विमाड सकता है न हम किसी का कुछ विगाडत है न हमें किसी बात की कमी हैं न लालसा है फिर ऐसा अवस्था में किसी से दुश्मनी या रज की नौवत हो भी क्योंकर सकती है ? अस्तु आप लोगों को यही चाहिए कि हमारखयाल छोड कर अपना काम करे और हमारा हाना न हाना एक बराबर समझे। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १२ ५८७