पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/५९९

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Gayi चन्द्रकान्ता सन्तति तेरहवाँ भाग पहिला बयान . अब हम अपने पाठकों का ध्यान जमानिया के तिलिस्म की तरफ फेरते हैं क्योंकि कुअर इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिह को वहाँ छोडे बहुत दिन हो गये और अब बीच में उनका हाल लिखे बिना किस्से का सिलसिला ठीक नहीं होता। हम लिख आये है कि कुंअर इन्द्रजीतसिह ने तिलिस्मी किताब को पढ कर समझने का भेद आनन्दसिंह को बताया और इतने ही में मन्दिर के पीछे की तरफ से चिल्लाने की आवाज आई। दोनों भाईयों का ध्यान एक दम उस तरफ चला गया और फिर यह आवाज सुनाई पड़ी अच्छा अच्छा तू मेरा सर काट ले मैं भी यही चाहती हूँ कि अपनी जिन्दगी में इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिह को दुखी न देवू ! हाय इन्दजीतसिह अफसोस, इस समय तुम्हेमरी खबर कुछ भी न होगी। इस आवाज को सुन कर इन्दजीतसिह येचैन और चेताय हो गये और आनन्दसिंह से यह कहते हुए कि 'कमलिनी की आवाज मालूम पडती है मन्दिर के पीछे की तरफ लपके। आनन्दसिंह भी उनके पीछे पीछे चले गये। जब कुअर इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिह मन्दिर के पीछे की तरफ पहुंचे तो एक विचित्र वेषधारी मनुष्य पर उनकी निमाह पडी। उस आदमी की उम्र अस्सी वर्ष से कम न होगी। उसके सर मोछदादी और भौ इत्यादि के तमाम बाल बर्फ की तरफ सुफेद हो रहे थे मगर गरदन और कमर पर बुढापे ने अपना दखल जमाने से परहेज कर रखा था अर्थात तो उसकी गरदन हिलती थी और न कमर झुकी हुई थी। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ बहुत कम पड़ी थी मगर फिर भी उसका गोरा चेहरा रौनकदार और रावीला दिखाई पडता था और दोनों तरफ के गालों पर अब भी सुरी मौजूद थी। एक नहीं बल्कि हर अगों की किसी न किसी हालत से वह अस्सी यरस का बुडढा जान पड़ता था परन्तु कमजोरी पस्तहिम्मती,बुजदिली और आलस्य इत्यादि के धावों से उसका शरीर बचा हुआ था। उसकी पोशाक राजों महाराजों की पोशाकों की तरह बेशकीमते तो न थी मगर इस योग्य भी न थी कि उसके गरीबी और कमलियाकत जाहिर होती। रेशमी तथा मोटे कपडे की पोशाक हर जगह से चुस्त और फौजी अफसरों के ढग की मगर सादी थी। कमर में एक भुजाली लगी हुई थी और बॉए हाथ में सोने की एक बडी उलिया या चगेर लटकाए हुए था। जिस समय वह कुँअर इन्दजीतसिह और आनन्दसिह की तरफ देखकर हँसा उस समय यह भी मालूम हो गया कि मुँह में जवानों की तरह कुल दॉत अभी तक मौजूद है और मोती की तरह चमक रहे हैं। कुअर इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिह को आशा थी कि वे इस जगह कमलिनी को नहीं तो किसी न किसी औरत को अवश्य देखेंगे मगर आशा के विपरीत एक ऐसे आदमी को देख उन्हें बडा ही ताज्जुब हुआ। इन्दजीतसिंह ने वह तिलिस्मी खजर जो मन्दिर के नीचे वाले तहखाने में पाया था आनन्दसिह के हाथ में दे दिया और आगे बढ़ कर उस आदमी से पूछा “यहाँ स एक औरत क चिल्लाने की आवाज आई थी वह कहाँ है? युडदा-(इधर उधर देख क ) यहाँ तो कोई औरत नहीं है। इन्द-अभी अभी हम दोनों ने उसकी आवाज सुनी थी। युवा-बेशक सुनी होगी मगर में ठीक कहता हूं कि वहा पर कोई औरत नहीं है। इन्द-ता फिर वह आवाज किसकी थी? युड्ढा-वह मेरी ही आवाज थी। आनन्द--(सिर हिला कर ) कदापि नहीं। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १३ ५९१