पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६१३

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eri आया था। जिस दिन शादी होने वाली थी केवल रात ही अधेरी न थी चल्कि बादल मी चारों तरफ से इतने घिर आए थे कि हाथ को हाथ भी नहीं दिखाई देता था। व्याह का काम उसी खास बाग में ठीक किया गया था जिसमें मायारानी के रहने का हाल हम कई मर्तबै लिख चुके हैं। इस समय इस बाग का बहुत बड़ा हिस्सा दारोगा ने शादी का सामान वगैरह रखने के लिए अपने कब्जे में कर लिया था। जिसमें कई दालान कोठरियों कमरे और तहखाने भी थे और साथ-साथ उसने हेलासिह की लडकी मुन्दर को भी लौडियो से कपडे पहना के अन्दर एक तहखाने में छिपा रक्खा था। कन्यादान का समय तीन पहर रात बीते पण्डितों ने निश्चय किया था और जो पण्डित विवाह कराने वालों का मुखिया था उसे दारोगा ने पहिले ही मिला लिया था। दो पहर रात बीतने के पहिले ही लक्ष्मीदेवी को साथ लिए हुए बलभदसिंह बाग के अन्दर कर लिए गये और विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया गया। बाग का जो हिस्सा दारोगा ने अपने अधिकार में रक्खा उसमें एक सुन्दर सजी हुई कोठरी भी थी जिसके नीचे एक तहखाना था। दारोगा की इच्छा से गोपालसिह के कुलदेवता का स्थान उसी में नियत किया गया था और उसके नीचे वाले तहखाने में दारोगा ने हेलासिह की लडकी मुन्दर को ठीक वैसे ही कपडे पहिना कर छिपा रखा था जैसे कि बलभद्रसिह ने लक्ष्मीदेवी के लिए बनवाये थे और जिन्हें चालाक दर्जियो के सहित दारोगा अच्छी तरह देख बलन्दसिह का दोस्त केवल दारोगा ही न था बल्कि दारोगा के गुरुमाई इन्द्रदेव से भी उनकी मित्रता थी और उन्हें निश्चय था कि इस विवाह में इन्द्रदेव भी अवश्य आवेगा क्योंकि राजा गोणलसिह भी इन्द्रदेव को मानते और उसकी इज्जत करते थे परन्तु बलभद्रसिह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब विवाह का समय निकट आ जाने पर भी उन्होंने इन्द्रदेव को वहाँ न देखा । जब उसने दारोगा से पूछा तो दारोगा ने इन्ददेव की चीटी दिखाई जिसमें यह लिखा था कि में बीमार हूँ इसलिए विवाह मे उपस्थित नहीं हो सकता और इसलिए आपस तथा राजा साहब से क्षमा मांगता हूँ। जब कन्यादान हो गया तो पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को लिए हुए राजा गोपालसिंह उस कोठरी में आए जहाँ कुलदेवता का स्थान बनाया गया था और वहाँ भी पण्डित ने कई तरह की पूजा कराई। इसके बाद पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को छोड़ गोपालसिह रस कोठरी से बाहर आए और वे लौडियों भी बाहर कर दी गई जो लक्ष्मीदेवी के साथ थी। उस समय पानी बर्ड जोर से बरसने लगा और हवा बडी तेज चलने लगी इस सचब से जितने आदमी वहाँ थे सब छितरवितर हो गए और जिसका जहाँ जगह मिली वहाँ जा घुसा। दारोगा तथा पण्डित की आज्ञानुसार बलमदसिह पालकी में सवार हो अपने डेरे की तरफ रवाना हो गए इधर गोपालसिह दूसरे कमरे में जाकर गद्दी पर बैठ रहे और रडियों का नाच शुरू हुआ जितने आदमी उस बाग में थे उसी महफिल की तरफ जा पहुचे और नाच देखने लगे और इस सबब से दारोगा को भी अपना काम करने का बहुत अच्छा मौका मिल गया। वह उस कोठरी में घुसा जिसमें लक्ष्मीदेवी थी उसे पूजा कराने के बहाने से तहखाने के अन्दर ले गया और तहखाने में से मुन्दर को लाकर लक्ष्मीदेवी की जगह बठा दिया। उस समय लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि चालबाजी खेली गई और बदकिस्मती ने आकर उसे घेर लिया। यद्यपि वह बहुत चिल्लाई और रोई मगर उसकी आवाज तहखाने और उसके ऊपर वाली कोठरी को भेद कर उन लोगों के कानों तक न पहुँच सकी जो कोठरी के बाहर दालान में पहरा दे रहे थे या महफिल में बैठे रडी का नाच देख रहे थे। तहखान के अन्दर से एक रास्ता वाग के बाहर निकल जाने का था जिसके खुले रहने का इन्तजाम दारागा ने पहिले स कर रक्खा था और दारोगा क आदमी गुप्त रीति से बाहरी दर्वाजे के आसपास मौजूद थे। दारोगा ने लक्ष्मीदेवी के मुंह में कपडा तूंस कर उसे हर तरह से लाचार कर दिया और इस सुरग की राह बाग के बाहर पहुचा और अपने आदमियों के हवाले कर दर्वाजा बन्द करता हुआ लौट आया {घण्टेही भर के बाद लक्ष्मीदेवी ने अपने को अजायबघर की किसी कोठरी में बन्द पाया और यह भी वहाँ उसक सुनने में आया कि बलभद्रसिह पर जो पानी बरसते में अपने डेरे की तरफ जा रहे थे डाकुओं ने छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर ले गए। जब यह खबर राजा गोपालसिह के कान में पहुची तो महफिल बरखास्त कर दी गई अकेली लक्ष्मीदेवी ( मुन्दर ) महल के अन्दर पहुचाई गई और राजा साहब की आज्ञानुसार सैकड़ों आदमी बलभद्रसिह को खोजने के लिए रवाना हो गए। उस समय पानी का बरसना बन्द हो गया था और सुबह की सुफेदी आसमान पर अपना दखल जमा चुकी थी। बलभद्रसिह को खोजन के लिए राजा साहव के आदमियों ने दो दिन तक बहुत कुछ उद्योग किया। मगर कुछ काम न चला अथात् बलभद्रसिह का पता न लगा और पता लगता भी क्योंकर? असल तो यह है कि बलभद्रमिह भी दारोगा के कब्जे में पड़कर अजायबघर में पहुच चुके थे। बलभदसिह पर डाका पडन ओर उनक गायब होने का हाल लेकर जब उनके आदमी लोग घर पहुँचे तो घर में हाहाकार मच गया कमलिनी लाडिली और उसकी मौसी रात रोते बहाल थीं मगर क्या हो सकता था। अगर कुछ हो सकता था ता केवल इतना ही कि थोडे दिन में धीरे धीरे गम कम होकर केवल सुनने सुनाने के लिए रह जाता और माया के फेर में पडे हुए चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १३