पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६१४

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lari जीव अपने अपने काम-बधे में लग जाते। खैर इस पचड़े का छोड़कर हम बलभद्रसिह और लक्ष्मीदेवी का हाल लिखते है जिससे हमारे किस्से का बड़ा भारी सम्बन्ध है। दारोगा की यह नीयत नहीं थी कि लक्ष्मीदेवी और बलमदसिह उसकी कैद में रहे बल्कि वह यह चाहता था कि महीने बीस दिन के बाद जब हो हल्ला कम हो जाय और वे लोग अपने घर चले जाय जो विवाह के न्योते में आए है तो उन दानों को मार कर टन्टा मिटा दिया जाए। परन्तु ईश्वर की मर्जी कुछ और ही थी। वह चाहता था कि लक्ष्मीदवी और बलभदसिह जिदा रह-फर बड़े-बड़े कष्ट भोगें और मुद्दत तक मुदों से यदतर बने रहे क्योकि थोड़ ही दिन बाद दारोगा की राय बदल गई ओर उसने लक्ष्मीदेवी और बलभदसिह को हमेशा के लिए अपनी कैद में रखना ही उचित समझा। उसे निश्चय हो गया कि हेलासिह बड़ा ही बदमाश और शैतान आदमी है और मुन्दर भी सीधी औरत नहीं है। अतएय आश्चर्य नहीं कि लक्ष्मीदेवी और बलभदसिह के मरने के बाद वेदानों पंफ्रिक हो जाय और यह समझ ले कि अब दारोगा हमारा कुछ नहीं कर सकता। मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल याहर करे तथा जो कुछ मुझे दो का वादा कर चुका है उसके बदले में अंगूठा दिखा दें। उसने सोचा कि यदि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिह इमारी कैद में बने रहेंगे तो हेलासिह और मुन्दर भी कब्जे के बाहर न जा सकेगे क्योंकि वे समझेंगे कि अगर दारागा से मुक्तिी की जाएगी तो वह तुरन्त वलभद्रसिह और लक्ष्मीदवी को प्रकट कर दगा और खुद राजा का रियाह बना रहेगा उस समय लन के दने पड जायेंगे इत्यादि। वास्तव में दरोगा का ख्याल बहुत टीक था/हेलासिह यही चाहता था कि दारोगा किसी तरह लक्ष्मीदवी और बलभद्रसिह को सपा डाले तो हम लोग निश्चिन्त हो जाय मगर जय उसन देखा कि दारोगा ऐसा नहीं करगा तालाचार चुप हो रहा । दारागान हेलासिह के साथ ही साथ मुन्दर को भी यह कह रक्खा था कि 'देवो चलनद्रसिद और लक्ष्मीदेवी मेरे कब्जे में है जिस दिन तुम मुझसे येमुरौवती करागी या मेरे हुक्म से सरफरानी उत्ती दिन मै लक्ष्मीदवी और बलभदसिंह को प्रकट करके तुम दोनों को जहन्नुम मे मिला दूगा । नि सन्देह दोनों कैदियों को कैद रख कर दारोगा ने बहुत दिनों तक फायदा उठाया और मालामाल हो गया मगर साथी इसके मुन्दर की शादी के महीने ही भर बाद दारोगा की चालाकियों ने लोगों को विश्वास दिला दिया कि बलभद्रसिह डाकुओं के हाथ मारा गया। यह खबर जब बलभदसिह के घर पहुची तो उसकी साली और दोनों लडकियों के रज का हद न रहा। बरसों बीत जाने पर भी उनकी ओखें सदातर रहा करती थीं मगर मुन्दर जो लक्ष्मीदेवी के नाम से मशहूर हो रही थी लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं वास्तव में कमलिनी और लाडिली की बहन हूँ उन दोनों के पास हमेशा तोहफा और सौगात भेजा करती थी। और कमलिनी और लाडिली भी जो यद्यपि बिना माँ बाप की हो गई थीं परन्तु अपनी मौसी की बदौलत जो उन दोनों को अपने से बढकर मानती थी और जिसे वे दोनों भी अपनी माँ की तरह मानती थी, बराबर सुख के साथ रहा करती थी। मुन्दर की शादी के तीन वर्ष बाद कमलिनी और लाडितो की भौसी भी कुटिल काल के गाल में जा पड़ी। इसके थोडे ही दिन बाद मुन्दर ने कमलिनी और लाडिली को अपने यहाँ बुला लिया और इस तरह खातिरदारी के साथ रखा कि उन दोनों के दिल में इस बात का शक तक न होने पाया कि मुन्दर वास्तव में हमारी यहिन लक्ष्मीदेवी नहीं है। यधपि लक्ष्मीदेवी की तरह मुन्दर भी बहुत खुबसूरत और हसीन थी मगर फिर भी सूरत शक्ल में बहुत कुछ अन्तर था लेकिन कमलिनी और लाडिली ने इसे जमाने का हेर फेर समझा जैसा कि हम ऊपर के किसी बयान में लिख आए है। यह सब कुछ हुआ मगर मुन्दर के दिल में जिसका नाम राजा गोपालसिंह की बदौलत मायारानी हो गया था दारोगा का खौफ बना ही रहा और वह इस बात से डरती ही रही कि कहीं किसी दिन दारोगा मुझसे रज होकर सारा भेद राजा गोपालसिंह के आगे खोल न दे। इस पला से बचने के लिए उसे इससे बढ कर कोई तर्कीब न सूझी कि राजा गोपालसिह को ही इस दुनिया से उठा दे और स्वय राजरानी बन कर दरोगा पर हुकूमत करे। उसकी ऐयाशी ने उसके इस ख्याल को और भी मजबूत कर दिया और यही वह जमाना था कि एक छोकरे पर जिसका परिचय धनपत के नाम से पहिले के बयानों में दिया जा चुका है उसका दिल आ गया और उसके विचार की जड़ बड़ की तरह मजबूती पकड़ती चली गई थी। उधर दारोगा बेफिक्र न था उसे भी रग चोखा करने की फिक्र लग रही थी। यद्यपि उसने लक्ष्मीदेवी और चलभद्रसिह को एक ही कैदखाने में कैद किया हुआ था। मगर वह लक्ष्मीदेवी को भी धोखे में डाल कर एक नया काम करने की फिक्र में पड़ा हुआ था और चाहता था कि बलभद्रसिह को लक्ष्मीदेवी से इस ढग से अलग कर दे कि लक्ष्मीदेवी को किसी तरह का गुमान तक न होने पावे। इस काम में उसने एक दोस्त की मदद ली जिसका नाम जैपालसिंह था और जिसका हाल आगे चल कर मालूम होगा। देवकीनन्दन खत्री समग्र