पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६२३

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युआ होती थी। यह बड़ी ही सूधी नेक धर्मात्मा थी और बडी सीधी चाल बल्कि फकीरी दग पर रहा करती थी)मैनै सुना है कि वह मर गई अगर जीती होती तो आपसे मुलाकात करा देती खैर मुझे यह बात मालूम हो चुकी थी कि वह बुढिया यहाँ के तहखाने का हाल बहुत ज्यादे जानती है अतएव मैने उससे दोस्ती पैदा कर ली और तब मुझे मालूम हुआ कि वह किशोरी पर दया करती है और चाहती है कि वह किसी तरह यहाँ से निकल कर राजा वीरेन्दसिंह के पास पहुंच जाय। 'मैने उसके दिल में विश्वास दिला दिया कि किशोरी को यहाँ से निकाल कर चुनार पहुंचा देने के विषय में जी जान से कोशिश करूँगी और इसीलिये उस युढिया ने भी यहाँ के तहखाने का बहुत सा हाल मुझसे कहा बल्कि उस राह से निकल जाने की सीब भी बताई मगर धनपत जो कुन्दन के नाम से यही रहती थी बराबर मेरे काम में बाधा डाला करती और मैं भी इस फिक्र में लगी थी कि किसी तरह उसे दबाना चाहिये जिसमें वह मेरा मुकाबला न कर सके। एक दिन आधी रात के समय में अपन कमरे से निकल कर कुन्दन के कमरे की तरफ चली। जद उसके पास पहुंची तो किसी आदमी के पैर की आहट मिली जो कुन्दन की तरफ जा रहा था। मैरूक गई और जब वह आदमी आगे बढकर कुन्दन के मकार के अन्दर चला गया तब मै धीरे-धीरे कदम रख कर उस मकान के पास पहुंची जिसमें कुन्दन रहती थी। उसकी कुर्सी बहुत ऊँची थी पाँच सीढियाँ चढ कर सहन में पहुंचना हाता था और उसके बाद कमरे के अन्दर जाने का दर्वाजा था वह कमरा अभी तक मौजूद है शायद आप उसे देखें । सीदियों के दोनों बगल चमेली की घनी टट्टी थी मैं उसी टट्टी में छिपकर उस आदमी के लौटने की राह देखने लगी जो मेरे सामने ही उस मकान में गया था। आधा घण्टे के बाद वह आदमी कमरे के बाहर निकला उस समय कुन्दन भी उसके साथ थी। जब वह सहन की सीढियों उतरने लगा तो कुन्दन ने उसे रोक कर धोरे से कहा 'मैं फिर कहे देती हूँ कि आप स मुझे बड़ी उम्मीद है। जिस तरह आप गुप्त राह से इस किले के अन्दर आते हैं उसी तरह मुझ किशोरी के सहित निकाल तो ले जायेंगे? इसके जवाब में उस आदमी ने कहा हा हा इस बात का तो मै तुमसे वादा ही कर चुका हूँ, अब तुम किशोरी को अपने काबू में करने का उद्योग करो मैं तीसरे चौथे यहा आकर तुम्हारी खबर ल जाया करूगा। इस पर कुन्दन ने फिर कहा मगर मुझे इस बात की खबर पहिले ही हो जाया करे कि आज आप आधी रात के समय यहा आदेंगे तो अच्छा हो। इसके जवाब में उस आदमी ने अपनी जेब में से एक नारगी निकाल कर कुन्दन के हाथ में दी और कहा 'इसी रग की नारगी उस दिन तुम बाग के उत्तर और पश्चिम वाले कोने में सध्या के समय देखोगी जिस दिन तुमसे मिलने के लिए मै यहा आने वाला होऊगा।' कुन्दन ने वह नारगी उसके हाथ स ले ली। सीढ़ियों के दोनों तरफ फूलों के गमले रखे हुए थे उनमें से एक गमल में कुन्दन ने वह नारगी रख दी और उस आदमी के साथ ही साथ थोड़ी दूर तक उसे पहुंचाने की नीयत से आगे की तरफ बढ़ गई। मैं छिपे छिपे सब कुछ देख सुन रही थी। जब कुन्दन आगे बढ़ गई और उस जगह निराला हुआ तब मैं झाडी के अन्दर से निकली और गमले से उस नारगी को लेकर जल्दीजल्दी कदम बढाती हुई अपने मकान में चली आई। किशोरी अपना हाल कहते समय आपसे कह चुकी है कि एक दिन मैने नारगी दिखाकर कुन्दन को दबा लिया था। यह वही नारगी थी जिसे देख कर कुन्दन समझ गई कि मेरा भेद लाली को मालूम हो गया यदि वह राजा साहब को इस बात की इत्तिला दे देगी और उस आदमी को पुन मेरे पास आने वाला है और जिसे इस बात की खबर नहीं है गिरफ्तार करा देगी तो मै मारी जाऊगी अस्तु उसे मुझसे दबना ही पड़ा क्योंकि वास्तव में यदि मै चाहती तो कुन्दन के मकान में उस आदमी को गिरफ्तार करा देती और उस समय महाराज दिग्विजयसिह दोनों का सिर काटे विना नहीं रहते। बीरेन्द्र-ठीक है अब मैं समझ गया, अच्छा तो फिर यह भी मालूम हुआ कि वह आदमी जो कुन्दन के पास आया करता था कौन था? लाडिली-पीछे तो मालूम हो ही गया कि वह शेरसिह थे और उन्होंने कुन्दन के बारे में धोखा खाया। देवीसिह-(बीरेन्द्रसिंह से } मैंने एक दफे आपसे अर्ज किया था कि शेरसिह ने कुन्दन के बारे में धोखा खाने का हाल मुझसे खुद क्यान किया था। और लाली को नीचा दिखाने या दवाने की नीयत से खून से लिखी किताव तथा ऑचल पर गुलामी की दस्तावेज वाला जुमला भी शेरसिह ही ने कुन्दन को बताया था और शेरसिह ने छिपकर किसी आदमी की बातचीत से वह हाल मालूम किया था। । धीरेन्द्र-ठीक है मगर यह हीं मालूम हुआ कि शरसिह ने छिप कर जिन लोगों की बातचीत सुनी थी वे कौन थे ? देवी-हाँ इसका हाल मालूम न हुआ शायद लाडिली जानती हो। लाडिली-जी हा जब मैं यहाँ से लौट कर मायारानी के पास गई तब मुझे मालूम हुआ कि वे लोग मायारानी के दोनों ऐयार बिहारीसिह और हरनामसिह थे जो हम लोगों का पता लगाने तथा राजकुमारों को गिरफ्तार करने कीनीयत से इस तरफ आये हुए थे। ीरेन्द-ठीक है अच्छा तो अब हम यह सुनना चाहते है कि खून से लिखी किताब और गुलामी की दस्तावेज से क्या चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १३ ६१५