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तीनों भाई उसी चबूतरे की तरफ बढ़े। राजा गोपालसिंह के पास भी तिलिस्मी खंजर मौजूद था जिसे उन्होंने हाथ में ले लिया और कब्जा दबा कर रोशनी करने के बाद कहा–आप दोनों आदमी उद्योग करें मैं रोशनी दिखाता हूँ।

आनन्द—(आश्चर्य से) आप भी अपने पास तिलिस्मी खंजर रखते हैं?

गोपाल—हाँ इसे प्राय: अपने पास रखता हूँ और जब तिलिस्म के अन्दर आने की आवश्यकता पड़ती है तब तो अवश्य ही रखना पड़ता है क्योंकि बड़े लोग ऐसा करने के लिए लिख गये हैं।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह दोनों भाई बाजे वाले चबूतरे के चारों तरफ घूमने और उसे ध्यान देकर देखने लगे। वह चबूतरा किसी प्रकार की धातु का और चौखूटा बना हुआ था। उसके दो तरफ तो कुछ भी न था मगर बाकी दो तरफ मुट्ठे लगे हुए थे, जिन्हें देख इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, 'मालूम होता है कि ये दोनों मुट्ठे पकड़कर खींचने के लिए बने हुए हैं।'

आनन्द—मैं भी यही समझता हूँ।

इन्द्र—अच्छा खेँचो तो सही।

आनन्द—(मुट्ठे को अपनी तरफ खेंच और घुमाकर) यह तो अपनी जगह से हिलता नहीं। मालूम होता है कि हम दोनों को एक साथ उद्योग करना पड़ेगा और इसीलिए इसमें दो मुट्ठे बने हुए हैं।

इन्द्र—बेशक ऐसा ही है, अच्छा हम भी दूसरे मुट्ठे को खींचते हैं। दोनों आदमियों का जोर एक साथ लगना चाहिए।

दोनों भाइयों ने आमने-सामने खड़े होकर दोनों मुट्ठों को खूब मजबूती से पकड़ा और बायें-दाहिने दोनों तरफ उमेठा मगर वह बिलकुल न घूमा। इसके बाद दोनों ने उन्हें अपनी तरफ खींचा और कुछ खिंचते देखकर दोनों भाइयों ने समझा कि इसमें अपनी पूरी ताकत खर्च करनी पड़ेगी। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् दोनों भाइयों के खूब जोर करने पर वे दोनों मुट्ठे खिंचकर बाहर निकल आये और इसके साथ ही उस चूबतरे की एक तरफ की दीवार (जिधर मुट्ठा नहीं था) पल्ले की तरह खुल गई। राजा गोपालसिंह ने झुककर उसके अन्दर तिलिस्मी खंजर की रोशनी दिखाई और तीनों भाई बड़े गौर से अन्दर देखने लगे। एक छोटी-सी चौकी नजर आई जिस पर छोटी-सी तांबे की तख्ती के ऊपर एक चाभी रक्खी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने अन्दर की तरफ हाथ बढ़ाकर चौकी खेँचना चाहा मगर वह अपनी जगह से न हिला, तब उन्होंने तांबे की तख्ती और ताली उठा ली और पीछे की तरफ हटकर उस खुले हुए पल्ले को बन्द करना चाहा मगर वह भी बन्द न हुआ, लाचार उसी तरह छोड़ दिया। तांबे की तख्ती पर दोनों भाइयों ने निगाह डाली तो मालूम हुआ कि उस पर बाजे में ताली लगाने की तरकीब लिखी हुई है। और ताली वही है जो उस तख्ती के साथ थी।

गोपाल—(इन्द्रजीतसिंह से) ताली तो आपको मिल ही गई है मगर मैं उचित समझता हूँ कि थोड़ी देर के लिए आप लोग यहाँ से चलकर बाहर की हवा खाएं और सुस्ताने के बाद फिर जो कुछ मुनासिब समझें करें।

इन्द्र—हां मेरी भी यही इच्छा है। इस बन्द जगह में बहुत देर तक रहने से तबियत घबरा गई और सिर में चक्कर आ रहा है।

आनन्द—मेरी भी यही हालत है और प्यास बड़े जोर की मालूम होती है।

गोपाल—बस तो इस समय यहाँ से चले चलना ही बेहतर है। हम आप लोगों को एक बाग में ले चलते हैं जहां पर हर तरह का आराम मिलेगा और खाने-पीने का भी सुभीता होगा।

इन्द्र—बहुत अच्छा चलिये, किस रास्ते से चलना होगा।

गोपाल—उसी राह से जिससे आप आये हैं।

इन्द्र—तब तो वह कमरा भी आनन्द के देखने में आ जायेगा जिसे मैं स्वयं इन्हें दिखाया चाहता था, अच्छा चलिये।

राजा गोपालसिंह अपने दोनों भाइयों को साथ लिये हुए वहां से रवाना हुए और उस कोठरी में गये जिसमें से आनन्दसिंह ने अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को आते देखा था। उस जगह इन्द्रजीतसिंह ने राजा गोपालसिंह से कहा, 'क्या आप इसी राह से यहां आते थे। मुझे तो इस दरवाजे की जंजीर खंजर से काटनी पड़ी थी।'

गोपाल—ठीक है, मगर हम इस ताले को हाथ लगाकर मामूली इशारे से खोल लिया करते थे।

आनन्द—इस तिलिस्म में जितने ताले हैं क्या वे सब इशारे ही से खुला करते हैं या किसी खटके पर हैं?

गोपाल—सब तो नहीं मगर कई ऐसे ताले हैं जिनका हाल हमें मालूम है।

इतना कह गोपालसिंह आगे बढ़े और उस विचित्र कमरे में पहुँचे जिसके बारें में इन्द्रजीतसिह ने आनन्दसिह से

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