पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६५७

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दि कहा था कि उस कमरे मे जो कुछ मैंने देखा सो कहने योग्य नहीं बल्कि इस योग्य है कि तुम्हें अपने साथ ले चल कर दिखाऊन वास्तव में वह कमरा ऐसा ही था और उसके देखने से आनन्दसिह को भी बड़ा आश्चर्य हुआ। मगर अवश्य ही वह राजा गोपालसिह के लिए कोई नई बात न थी क्योंकि वे कई दफे उस कमरे को देख चुके थे। तिलिस्मी खजर की तेज रोशनी के कारण वहाँ की कोई चीज ऐसी न थी जो साफ साफ दिखाई न देती हो और इसीलिए वहाँ की सब चीजों को दोनों भाइयों ने खूब ध्यान देकर देखा । इस कमरे की लम्बाई लगभग पचीस हाथ के होगी और यह इतना ही चौड़ा भी होगा। चारों कोनों में चार जड़ाऊ सिंहासन रक्खे हुए थे और उन पर बड़े-बड़े चमकदार हीरे मानिक पन्ने और मोतियों के देर लगे हुए थे। उनके नीचे सोने की थालियों में कई प्रकार के जडाऊजेवर रक्खे हुए थे जो औरतों और मर्दो के काम में आ सकते थे। चारों सिहासनों के बगल से लोहे के महरावदार खम्भे निकले हुए थे जो कमरे के बीचोबीच में आकर डेढ पुर्से की ऊचाई पर मिल गये थे और उनके सहारे एक आदमी लटक रहा था जिसके गले में लोहे की जजीर फासी के ढग पर लगी हुई थी। देखने से यही मालूम होता था कि यह आदमी इस तौर पर फासी लटकाया गया है। उस आदमी के नीचे एक हसीन औरत सर के बाल खोले इस दग से बैठी हुई थी जैसे उस लटकते हुए आदमी का मातम कर रही हो, तथा उसके पास ही एक दूसरी औरत हाथ में लालटेन लिए खडी थी जिसे देखने के साथ ही आनन्दसिह बोल उठे 'यह वही औरत है जिसे मैने उस कमरे में देखा और जिसका हाल आप लोगों से कहा था फर्क केवल इतना ही है कि इस समय इसके हाथ वाली लालटेन युझी हुई है। गोपाल-तुम भी तो अनोखी बात कहते हो भला ऐसा कभी हो सकता है। आनन्द-हो सके चाहे न हो सके मगर यह औरत नि सन्देह वही है जिसे मैं देख चुका है, अगर आपको विश्वास न हो तो इससे पूछ कर देखिये। गोपाल-(हसक ) क्या तुम इसे सजीव समझते हो ! आनन्द-तो क्या यह निर्जीद है? गोपाल-वेशक ऐसा ही है। तुम इसके पास जाओं और हिला-डुला कर दखो। आनन्दसिंह उस औरत के पास गये और कुछ देर तक खडे होकर देखते रहे मगर बड़ों के लिहाज से यह सोच कर हाथ नहीं लगाते थे कि कहीं यह सजीव न हो। राजा गोपालसिंह इनका मतलब समझ गये और स्वय उस पुतली के पास जा कर बोले खाली देखने से पता न लगेगा इसे हिला-डुला और ठोक कर देखो !! इतना कह उन्होंने उस मुतली के सर पर दो तीन चपत जमाई जिससे एक प्रकार की आवाज पैदा हुई जैसे किसी धातु की पोली चीज को ठोंकने से निकलती है उस समय आनन्दसिह का शक दूर हुआ और वे बोले 'नि सन्देह यह निर्जीव है मगर वह औरत भी ठीक ऐसी ही थी डील-डौल रगदग कपड़ा लत्ता किसी बात में फर्क नहीं है । ईश्वर जाने क्या मामला है। गोपाल ईश्वर जाने क्या भेद है परन्तु जब से तुमने यह बात कही है हमारे दिल का एक खुटाका सा लग गया है जब तक उसका ठीक-ठीक पता न लगेगा जी को चैन न पड़गा। खैर इस समय तो यहा से चलना चाहिए। राजा गापालसिह उस लटकते हुए आदमी के पास गए और उसका एक पैर पकड़ कर नीचे की तरफ दा-तीन झटका दिया तब यहा से हट कर इन्द्रजीतसिह के पास चले आये। झटका देने के साथ ही वह आदमी जोर जोर त झोके खान लगा और कमर में किसी तरह की भयानक आवाज आने लगी मगर यह नहीं मालूम होता था कि आवाज किघर से आ रही है हर तरफ वह मयानक आवाज गूज रही थी। यह हालत चौथाई घड़ी तक रही इसके बाद जोर की आवाज हुई और सामन की तरफ एक छोटा सा दर्वाजा खुला हुआ दिखाई दिया। उस समय कमरे में किसी तरह को आकज सुनाई न देती थी, हर तरह से सन्नाटा हो गया था। दोनों भाइयों को साथ लिए राजा गोपालसिह दर्वाजे के अन्दर गए जो अभी खुला था। उसके अन्दर ऊपर चढने के लिए सीढिया बनी हुई थी जिस राड से तीनों भाई ऊपर चढ़ गये और अपने को एक छोटे से नजरयाग में पाया। यह बाग पपि छाटा था मगर बहुत ही पूबसूरत और सूफियान किते का बना हुआ था। संगमर्मर को बारीक नालियों में नहर का जल चकाबू के नक्शे की तरह घूम-फिर कर याग कीखूबसूरती को बढ़ा रहा था। खूशबूदार फूलों की महक हवा के हलके हलके झपटों के साथ आ रही थी सूर्य अस्त हो चुका या रात के समय चिलने वाली कलियां को चन्द्रदेव की आशा लग रही थी। कुँअर इन्द्रजीततिह और आनन्दसिह बहुत दर तक अधेरे में रहन तथा भू-प्यार के कारण बहुत परेशान हो रहे थे, नहर के किनार सास पत्थर पर बैठ गए कपडे उतार दिये और मोती सरीख साफ जलसे हावाह चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १४