पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६७२

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- इस समय रात घटे भर से कुछ ज्याद जा चुकी थी। इन्दिरा ने पहिले अपनी माँ का और फिर अपना हाल इस तरह बयान किया इन्दिरा-मेरी मा का नाम सर्दू और पिता का नाम इददेव है। इन्द्र-(ताज्जुब से) कौन इन्द्रदेव? गोपाल-वहीं इन्द्रदेव जो दारोगा का गुरुभाई है जिसन लक्ष्मी देवी की जान बचाई थी और जिसका जिक्र में अभी कर चुका है। इन्द्र-अच्छा तब! इन्दिरा-मेरे नाना बहुत अमीर आदमी थे। लाखों रूपये की मौरूसी जायदाद उनके हाथ लगी थी और वह खुद भी बहुत पैदा करते थे मगर सिवाय मरी मों के उनको और कोई औलाद न थी इसलिए वह मेरी मा को बहुत प्यार करते थे और धन दौलत भी बहुत ज्यादे दिया करते थे। इसी कारण मेरी मा का रहना वर्निस्थत ससुराल के नेहर में ज्यादे होता था। जिस जमाने का मैं जिक्र करती हूँ उस जमाने में मेरी उम्र लगभग सात आठ वर्ष के होगी मगर मै बातचीत और समझबूझ में होशियार थी और उस समय की बात आज भी मुझे इस तरह याद है जैसे कल ही की बातें हो । जाडे का मौसम था जब से मेरा किस्सा शुरू होता है। मै अपने ननिहाल में थी। आधी रात का समय था मैं अपनी माँ के पास पलग पर सोई हुई थी। यकायक दरवाजा खुलने की आवाज आई और किसी आदमी को कमरे में आते देख भेरी माँ उठ बैठी साथ ही इसके मेरी नींद भी टूट गई। कमरे के अन्दर इस तरह यकायक आने वाले मेरे नाना थे जिन्हें देख मेरी माँ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह पलग के नीचे उतर कर खड़ी हो गई। आनन्द-तुम्हारे नाना का क्या नाम था ? इन्दिरा-मेरे नाना का नाम दामोदरसिह था और वे इसी शहर जमानिया में रहा करते थे। आनन्द-अच्छा तब क्या हुआ ? इन्दिरा-मेरी माँ को घयडाई हुई देखफर नाना साहब न कहा “स', इस समय यकायक मेरे आने से तुझे ताज्जुय होगा और नि सन्देह यह ताज्जुब की बात है भी मगर क्या फल फिस्मत और लाचारी मुझसे ऐसा कराती है। सर्य, इस बात को मै खूब जानता है कि लड़की की अपनी मर्जी से ससुराल की तरफ विदा कर देना सभ्यता के विरुद्ध और लज्जा की बात है मगर क्या करू आज ईश्वर ही ने ऐसा करने के लिए मुझे मजबूर किया है। वटी आज मैं जबर्दस्ती अपने हाथ से अपने कलेजे को निकाल कर बाहर फेंकता हू अर्थात् अपनी एक मात्र औलाद को ( तुझको) जिसे दखे बिना कल नहीं पड़ती थी जबर्दस्ती उसके सुसराल की तरफ विदा करता ह। मैने सभी को चोरी बालाजी को बुलवा भेजा है और मुझे खयर लगी है कि दो घण्टे के अन्दर ही वह आया चाहते है। इस समय तुझे यह इतिला देने आया हूँ कि इसी घण्टे दो घण्टे के अन्दर तू भी अपने जाने की तैयारी कर ले ! इतना कहते-कहते नाना साहब का जी उमड़ आया गला भर गया, और उनकी आँखों से टपाटप आसू की बूद गिरन लगी- इन्द्र-बालाजी किसका नाम है ? इन्दिरा-मेरे पिता को मेरे ननिहाल में सब कोई बालाजी कह कर पुकारा करते थे। इन्द्र-अच्छा फिर? इन्दिरा--उस समय अपने पिता की ऐसी अवस्था देखकर मेरी माँ बदहवास हो गई और उखडी हुई आवाज में वोली पिताजी यह क्या? आप की ऐसी अवस्था क्यों हो रही है ? मैं यह बात क्यों देख रही हूँ? जो बात मैने आज तक नहीं सुनी थी वह क्यों सुन रही हूँ। मैनें ऐसा क्या कसूर किया है जो आज इस घर से निकाली जाती है ? दामोदरसिह ने कहा 'बेटी तून कुछ कसूर नहीं किया, सब कसूर मेरा है। जो कुछ मैने किया है उसी का फल भोग रहा हूँ बस इससे ज्यादे और मै कुछ नहीं कहा चाहता हाँ तुझसे में एक घात की अभिलाषा रखता हू, आशा है कि तू अपने बाप की बात कभी न टालेगी। तू खूब जानती है कि इस दुनिया में तुझस वद कर मै किसी को नहीं मानता हू और न तुझसे यहफूर किसी पर मेरा स्नेह है अतएव इसके बदले में केवल इतना ही चाहता है कि इस अन्तिम समय में जो कुछ मैं तुझ कहता हू उसे तू अवश्य पूरा करे और मेरी याद अपने दिल में बनाये रहे इतना कहते-कहते मेरे नाना की बुरी हालत हा गई। आसुओं ने उनके रोआवदार चेहरे का तर कर दिया और गला ऐसा भर गया कि कुछ कहना कठिन हो गया। मेरी माँ भी अपने पिता की विचित्र वातें सुनकर अधमुई सी हो गई। पितृस्नेह ने उसका कलेजा हिला दिया,न रुकने वाले ऑसुओं को पोछकर और मुश्किल से अपने दिल को सम्हाल कर वह बोली पिताजी कहो शीघ्र कहो कि आप मुझसे क्या चाहते हैं? मैं आपके चरणों पर जान देने के लिए तैयार है। इसके जवाब में दामोदरसिह ने यह कह कर कि मैं भी तुझसे यही आशा रखता हू अपने कपड़ों के अन्दर से एक देवकीनन्दन खत्री समग्र ६६४