पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६८१

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दि ht - उसने कई दफकाई तरह से उलट फेर कर पूछा मगर मैने अपनी बातों में फर्क न डाला और तब मैने उससे अपनी माँ का हाल पूछा लकिन उसने कुछ भी न बताया और मेरे पास से उठकर चला गया। मुझे खूब याद है कि उसके दोपहर बाद मैं जब प्यास के मारे बहुत दुखी हो रही थी तब फिर एक आदमी मेरे पास आया। वह भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाए हुए था। मैं डरी और समझी कि फिर उन्हीं कम्बख्तों में से कोई मुझे सताने के लिए आया है मगर वह वास्तव में गदाधरसिह थे और मुझे उस कैद से छुड़ाने के लिए आए थे। यद्यपि मुझे उस समय यह खयाल हुआ कि कहीं यह भी उन दोनों ऐयारों की तरह मुझे धाखा न देते हों जिनकी बदौलत मै घर से निकल कर कैदखाने में पहुंची थी मगर नहीं वे वास्तव में गदाधरसिंह ही थे और उन्हें में अच्छी तरह पहिचानती थी। उन्होंन मुझ गोद में उठा लिया और तहखाने के ऊपर निकल कई पेचीले रास्तों से घूमते-फिरत मैदान में पहुंचे। वहा उनके दो आदमी एक घोडा लिए तैयार थे। गदाधरसिह मुझे लकर घोडे पर सवार हो गये अपने आदमियों को ऐयारी भाषा में कुछ कह कर विदा किया और खुद एक तरफ रवाना हो गए। उस समय रात बहुत कम गकी थी और सवेरा हुआ चाहता था। रास्ते में मैंने उनसे अपनी मा का हाल पूछ। उन्होंने उसका कुछ हाल अर्थात् मेरी मा का उस सभा में पहुँचना मेरे पिता का भी कैद होकर वहा जाना कलमदान की लूट तथा मेरे पिता का अपनी स्त्री का लेकर निकल जाना बयान किया और यह भी कहा कि कलमदान का लूट कर ले भागने वाले का पता नहीं लगा। लगभग चार-पाच कोस चले जाने के बाद वे एक छोटी सी नदी के किनारे पहुंचे जिसमें घुटने यरावर से ज्यादा जल न था। उस जगह गदाधरसिह धोड़े के नीचे उतरे और मुझे भी उतारा खुर्जी से मेवा निकाल कर मुझ खाने को दिया। मैं उस समय बहुत भूखी थी अस्तु मेवा खाकर पानी पिया इसके बाद वह फिर मुझ लेकर घोडे पर सवार हुए और नदी पार हो कर एक तरफ को चल निकले। दो घण्टे तक घोडे का धीरे-धीरे चलाया और फिर तेज किया। दोपहर दिन के समय हम लोग एक पहाडी के पास पहुंचे जहा बहुत ही गुन्जान जगल था और गदाधरसिह के चार पाच आदमी भी वहा मौजूद थे। हम लागों के पहुंचते ही गदाधरसिह के आदमियों न जमीन पर कम्बल बिछा दिया कोई पानी लेने के लिए चला गया कोई घाडे को ठडा करने लगा और कोई रसाई बनाने की धुन में लगा क्योकि चावल दाल इत्यादि उन आदमियों के पास मौजूद था। गदाधरसिह भी मेरे पास बैठ गये और अपने बटुए में से कागज कलम दावात निकालकर कुछ लिखने लगे। मरे देखते ही दखते तीन चार घण्टे तक गदाधरसिह ने बटुए मेंस कई कागजो को निकाल कर पढ़ा और उनकी नकल की तब तक रसोई भी तैयार हो गई। हम लोगों ने भोजन किया और जब बिछावन पर आकर बैठे तो गदाधरसिह ने फिर उन कागजों को देखना और नकल करना शुरू किया।मै रात भर की जगी हुई थी इसलिए मुझे नींद आ गई। जब मरी ऑखें खुली तो घण्टे भर रात जा चुकी थी उस समय गदाधरसिंह फिर मुझे लेकर घोडे पर सवार हुए और अपने आदमियों को कुछ समझा-बुझा कर रवाना हो गये। दो तीन घण्टे रात बाकी थी जब हम लोग लक्ष्नीदेवी के बाप बलभद्रसिह के मकान पर जा पहुंचे। वलभदसिह और मेरे पिता में बहुत 'भत्रता थी इसलिए गदाधरसिंह ने मुझे वहीं पहुंचा देना उत्तम समझा। दरवाजे पर पहुंचने के साथ ही बलभदसिहजी को इत्तिला करवाई गई। यद्यपि व उस समय गहरी नींद में साये हुए थे मगर सुनने के साथ ही निकल आए और बड़ी खातिरदारी के साथ मुझे और गदाधरसिह को घर के अन्दर अपन कमरे में ले गए जहाँ सिवाय उनके और कोई भी न शा! बलमदसिह ने मेरे सर पर हाथ फेरा और बड़े प्यार से अपनी गोद में बैठा कर गदाधरसिह से हाल पूछा। गदापासि | सब हाल जो मै बयान कर चुकी हूँ उनसे कहा और इसके बाद नसीहत की कि इन्दिरा को बड़ी हिफाजत से अपने पास रखिये जब तक दुश्मनों का अन्त न हो जाय तब तक इसका प्रकट हाना उचित नहीं है मैं फिर जमानिया जाता है और देखता हूँ कि वहाँ क्या हाल है। इन्द्रदेव से मुलाकात होने पर मै इन्दिरा को यहां पहुंचा देना बयान कर दूंगा बलभद्रसिह ने बहुत ही प्रसन्न होकर गदाधरसिह को धन्यवाद दिया और वे थोडी देर तक बातचीत करने के बाद सवेरा होने के पहिले ही वहाँ से रवाना हो गये। गदाधरसिह के चले जाने के बाद बलभद्रसिहजी मुझसे बातचीत करते रहे और सर्वरा हो जाने पर मुझे लेकर घर के अन्दर गये : उनकी स्त्री ने मुझे बडे प्यार से गाद में ले लिया और लक्ष्मीदेवी ने तो मेरी ऐसी कदर की जैसी कोई अपनी जान की कदर करता है। मुझे वहाँ बहुत दिनों तक रहना पड़ा था इसलिए मुझसे और लक्ष्मीदेवी से हद से ज्यादे मुहब्बत हो गई थी। मैं बड़े आराम से उनके यहाँ रहने लगी। मालूम होता है कि गदाधरसिंह ने जमानिया में जाकर मेरे पिता से मेरा सब हाल कहा क्योंकि थोड ही दिन याद मेरे पिता मुझे देखने क लिए बलभद्रसिह के यहा आये और उस समय उनकी जुबानी मालूम हुआ कि मरी मा पुन मुसीबत में गिरफ्तार हो गई अर्थात् महल में पहुंचने के साथ ही गायब हो गई। मैं अपनी माँ के लिए बहुत रोई मगर मेरे पिता ने मुझे दिलासा दिया। केवल एक दिन रह के मरे पिता जमानिया की तरफ चले गये और मुझे वहाँ ही छोड़ गए। मै कर चुकी हूँ कि मुझसे और लक्ष्मीदवी से बडी मुहब्बत हो गयी थी इसीलिए मैने अपने नाना साहब और उस कलमदान का कुल हाल उससे कह दिया था और यह भी कह दिया था कि उस कलमदान पर तीन तस्वीरें बनी हुई है, दो चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १५ ६७५