पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/६८६

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है राजी करने के दारोगा को और काई बात न सूझी। आखिर बीस हजार अशर्फी चार राज के अन्दर दे देने के वाद पर दारागा न अपनी जान बचाई और कलमदान भूतनाथ से माँगा भूतनाथ न वीस हजार अशी लेकर दारोगा की जान छोड दने का वादा किया और कलमदान देना भी स्वीकार किया अस्तु दारोगा न उतने ही को गनीमत समझा और चार दिन क बाद बीस हजार अशर्फी गदाधरसिह का अदा करके आप पूरा कगाल बन बैठा। इसके बाद गदाधरसिंह ने और मम्बरों स भी कुछ वसूल किया और कलमदान दारोगा का दे दिया मगर दारोगा स इस बात का इकरारनामा लिखा लिया कि वह किसी एस काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा काम करेगा जिसमें इन्द्रदेव सर्दू इन्दिरा और मुझ {गापालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुंचे। इन सब कामों से छुट्टी पाकर गदाधरसिंह दारोगा स अपने घर के लिय विदा हुआ मगर वास्तव में वह फिर भी घर न गया और भष बदल कर इसलिए जमानिया में घूमने लगा कि रघुवरसिंह क भेदों का पता लगाये जा बलभद्रसिंह के साथ विश्वासघात करने वाला था। वह फकीरी सूरत में रोज रघुवरसिह क यहा जाकर नौकर और सिपाहियों में बैठन और हलमेल बढाने लगा। थोड ही दिनों में उसे मालूम हो गया कि रघुवरसिह अभी तक हलासिह से पत्र व्यवहार करता है और पत्र ल जान और पत्र ले आन का काम केवल बेनीसिंह करता है जो रघुवरसिह का मातयर सिपाही है। जब एक दफे बनीसिह हलासिह के यहा गया तो गदाधरसिह ने उसका पीछा किया और मौका पाकर उस गिरफ्तार करना चाहा लकिन बनीसिह इस बात का समझ गया और दानों में लडाई हा गई। गदाधरसिंह के हाथ मे बनीसिंह मारा गया और गदाधरसिंह वेनीसिह वन कर रघुवरसिह क यहा रहन तथा हलासिह के यहा पत्र लेकर जाने और जवाव ल आन लगा। इस हीले से तथा कागजों की चारी करन से थोड़ही दिनों में रघुवरसिंह का सब भद उस मालूम हा गया और तब उसन अपने का रधुवरसिह पर प्रकट किया. लाचार हो रघुवरसिंह न मी उस बहुत सा रुपया देकर अपनी जान बचाई। यह फिस्सा बहुत बड़ा है और इसका पूरा-पूरा हाल मुझे भी मालूम नहीं है जव भूतनाथ अपना किस्सा आप बयान करेगा तब पूरा हाल मालूम होगा फिर भी मतलय या कि उस कमलदान की बदौलत भूतनाथ न रुपया भी बहुत पैदा किया और साथ ही अपन दुश्मन भी बहुत बनाए जिसका नतीजा यह अब भाग रहा है और कई नेक काम करने पर भी उसकी जान को अभी तक छुट्टी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं जय भूतनाथ असली बलभद्रसिह का पता लगावगा तब और भी कई विचित्र वातों का पता लगगा। मन ता सिर्फ इन्दिरा क किस्से का सिलसिला चटान के लिए बीच ही में इतना धयान कर दिया। इन्द्र-यह सब हाल आपका कब और कैस मालूम हुआ? गोपाल-जय आप ने मुझे कैद स छुडाया उसके बाद हाल ही मय सब बातें मुझ मालूम हुई है और जिस तरह मालूम हुई सा अभी कहने का मौका नहीं अब आप इन्दिरा का किस्सा सुनिए फिर जो कुछ शका रहंगी उसके मिटाने का उद्योग किया जायगा। इन्दिरा-जो आज्ञा । दारोगा ने मुझे वेहोश कर दिया और जय मैं होश में आई तो अपने का एक लम्बे चौड कमरे में पाया। मरे हाथ-पैर खुले हुए थे और वह कमरा भी बहुत साफ और हवादार था। उसके दो तरफ की दीवार लकड़ी की थी और एक तरफ की ईट और खून स बनी हुई थी। एक तरफ की दीवार में दो दर्वाज ये और दूसरी तरफ की पक्की दीवार में छाटी-छोटी तीन खिडकिया बनी हुई थीं जिनमें से हवा यथ्वी आ रही थी मगर वे खिडकिया इतनी ऊची थीं कि उन तक मरा हाथ नहीं जा सकता था। बाकी दातरफ की दीवारों में जो लकडी की थीं तरह-तरह की सुन्दर और बड़ी तस्वीरें बनी हुई थी और छत में दा राशनदान थे जिनमें से की चमक आ रही थी तथा उस कमरे में अच्छी तरह उजाला हा रहा था। एक तरफ की पाकी दीवार में जा दर्वाज थ उनमें स एक दर्वाजा खुला हुआ और दूसरा बन्द था ! मै जय हाश में आई ता अपना सिर किसी की गोद में पाया। मघवडा-कर उट बैठी और उस औरत की तरफ देखने लगी जिसकी गाद में मेरा सिर था। वह मरे ननिहाल की वही दाई थी जिसन मुझे गाद में खिलाया था और जो मुझ बहुत प्यार करती थीं यद्यपि में कैद म थी और मा-बाप की जुटाई में अधमुई हो रही थी फिर भी अपनी दाई को देखते ही थोडी देर के लिए सब दुख भूल गई और ताज्जुब के साथ मैने उस दाइ से पूछा अन्ना तू यहा कैसे आई? क्योंकि मैं उस दाई का अन्ना कह के पुकारा करती थी। अन्ना-वटी मै यह तो नहीं जानती कि तू यहा कय से हे मगर मुझे आये अभी दो घण्टे से ज्यादा नहीं हुए। मुझे कम्बख्त दारोगा न धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और येहाश करक यहा पहुचा दिया मगर इस तरह तुझे देख कर मै अपना दुख विल्कुल मूल गई तू अपना हाल तो बता कि यहा कैसे आई? में-मुझ भी कम्बख्त दारांगा ही न यहोश करके यहाँ पहुंचाया है। राजा गापालसिहजी की शादी हो गई मगर जब मेन अपनी प्यारी लक्ष्मीदवी के बदले में किसी दूसरी औरत को वहा देखा तो घबड़ा कर इसका सवव पूछने के लिए राजा साहय के पास गई मगर उनक कमरे में केवल दारागा बैठा हुआ था. में उसी से पूछ बैठी। बस यह सुनते ही वह मेरा दुश्मन हा गया धोखा देकर दूसरे मकान की तरफ ल चला और रास्ते में एक कपड़ा मेरे मुह पर डाल कर बेहोश कर देवकीनन्दन खत्री समग्र ६७८