पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७

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2 - समय और कौन था जो अंग्रेजों से लोहा लेता। जिसे हम जनता कहते हैं उसमें चेतना लाने का श्रेय तो महात्मा गाँधी को है,। उस समय जन भावना का प्रतिनिधित्व मामंतों के हाथ में था। यही कारण है कि १८५७ का विद्रोह सामंती होकर भी गष्ट्रीय आन्दोलन था। सामंतों का नेतृत्व होने मात्र से वह अराष्ट्रीय नहीं कहा जा सकता है । वहुत बाद में राष्ट्रीय- आन्दोलन का नेतृत्व पूंजीपतियों के हाथ में गया । वह भी खुल कर नहीं । बाद में सामंत अंग्रेजों के साथ हो गए । पूंजीपति सत्ता में सीधी साझेदारी की अपेक्षा प्रतिनिधि मूलक साझेदारी में विश्वास करता है । उसका मुख्य ध्यान व्यापार, उद्योग और पैमों पर रहता है। वह शासन के झमेले में नहीं फंसना चाहता है। जैसे पुराने सामंत व्यापारी नहीं होते थे। यह एक ढंग की वर्णव्यवस्था है । वर्ग विभाजन है। मत्ता और सम्पत्ति के बीच की लक्ष्मण रेखा है। इसे आज भी देखा जा सकता है। स्वतंत्र भारत में अनेक करोड़पति हैं जो पहले कंगाल थे। ये करोड़पति सत्ता बल पर हुए हैं यह नहीं कहा जा सकता है। ऐसे नये धनियों में तस्करों और ठीकेदारों को देखा जा सकता है । व्यापारियों की परंपग भी बहुत कुछ मत्ता से स्वतंत्र है । इनमें कभी-कभी घाल-मेल भी देखा जा सकता है। कुछ मान्य पैशे और सरकारी नौकरियाँ भी पैसा बनाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती हैं। खत्री जी कालीन जमींदार या सामंत एक टूटते हुए स्वप्न लोक में रह रहे थे। जिस लोक को वे छोड़ना नहीं चाहते थे। किन्तु जिसका रहना उनके वश नहीं था। वे किसी विद्रोह की स्थिति में भी नहीं थे। एक बार विद्रोह पराजित हो चुका था । वे ऐयारी से काम लेना चाहते थे। कोई लकलका सुँघाए कि काम वने । इस प्रकार के एक दिवास्वप्न में लीन हैं। किंतु वे अपनी बेचैनी को जानते हैं। इसीलिये मामाजिक छल-कपट, ईष्या, द्वेष, मार पीट भी बहुत हैं । उनका समाज विच्छृखल हो रहा है। उनकी सत्ता टूट रही है। वे लड़ते अवश्य हैं । किंतु उनकी लड़ाई की पुरानी तेजस्विता खत्म है । पुराना अंदाज भी नहीं रह गया है । उनमें पौरुप और पुरुषार्थ का घोर अभाव है । सामंती सभ्यता ने जिन मानवी मूल्यों और आदर्शों की स्थापना की थी वे भी समाप्त प्राय हैं । वे सब करीब-करीव मुगल शासन में ही साथ छोड़ चुके थे। आखिर मुगल शासन का पतन हुआ ही क्यों ? इसीलिये न कि वह केवल विलामी मात्र रह गया था । राज्य का आधार विलास और लिवास हो गया था । 'शासन का प्रजा मे संबंध बिल्कुल छुट गया था । कोई भी शासक अपना विलास छोड़ने को तैयार न था । विलास ने आपमी कलह को जमीन दी । विलास और कलह में वे इतने लिप्त हुए कि उन्हें अपनी सुरक्षा का ध्यान भी नहीं रहा । उर्दू की श्रृंगारी और रीतिकाल की श्रृंगारी कविताएँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं। गष्ट्रीय जागरण का विकास इनसे हटकर हुआ । भारत के राष्ट्रीय जागरण में न केवल कि अंग्रेजों का विरोध है बल्कि भारत के सामंत वर्ग का भी विरोध है। यही कारण है कि समाजवादी नारों और कुछ कार्यों के बावजूद स्वराज्य में पूंजीवाद विकसित हुआ। किंतु सामंती प्रथा का बिल्कुल उच्छेद हो गया। स्वतत्र भारत में देशी रियासतों को केंद्र के दीपक पर गिरे पतंग सा मिला लिया गया । इसलिये कि स्वतंत्र भारत में सामंतवाद के लिए कोई स्थान नहीं रह गया था। उसने जनता की पूरी सहानुभूति खो दी थी । आधुनिक भारत के विकास में वह अवरोधक सिद्ध हो रहा था । अंग्रेजी गज्य के जमाने में हुए चुनावों में सामंतों ने अपनी पार्टियाँ अलग बनाई । उन्होंने गष्ट्रीय कांग्रेस का विरोध किया ! अस्तित्व रक्षा के लिए अंग्रेजों का समर्थन किया । यह भी एक अलग स्थिति थी कि जिन शक्तियों ने १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया वे आगे चलकर अंग्रेजों के साथ हो गयीं । किन्तु सामंत लगातार पराजित होते गए । खत्री जी के उपन्यासों की । viii)