पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७१९

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4 दिया होगा और तू सोचती होगी कि मैंने दारोगा को जीता क्यों छोड दिया तथा मुझे राजा गापालसिह के पास न ले जाकर अपन पर क्यों लिये जाना हूँ, अस्तु मैं इसका जवाब इसी समय दे देना उचित समझता हूँ। दारोगा को मैंने यह सोचकर छाड दिया कि अभी तरी माँ का पता लगाना है और नि सन्देह वह भी दारोगा ही के कब्जे में है जिसका पता मुझे लग चुका है तथा राजा साहब के पास मैं तुझे इसलिए नहीं ले गया कि महल में बहुत से आदमी ऐसे है जो दारोगा के मेली हे राजा गोपालसिह तथा मै भी उन्हें नहीं जानता। ताज्जुब नहीं कि वहा पहुचन पर तू फिर किसी मुसीबत में पड़ जाय।' में-आपका साचना बहुत ठीक है मेरी माँ भी महल ही में से गायब हो गई थी तो क्या आप इस बात की खबर भी राजा गोपालसिह का न करेंगे? गदा-राजा साहब को इस मामल की खबर जचर की जायेगी मगर अभी नहीं। मैं-तब कब? गदाधर-जब तेरी मा को भी कैद से छुड़ा लूगा तव हा अब तू अपना हाल कह कि दारागा ने तुझे कैसे गिरफ्तार कर लिया और यह दाई तेरे पास कैसे पहुची? मैं अपना और अपनी अन्ना का किस्सा शुरू से आयीर तक पूरा-पूरा कह गई जिते सुन कर गदाधरसिह का बचा बचाया शक भी जाता रहा और उसे निश्चय हो गया कि मेरी माँ भी दारोगा ही के कब्जे में है। सवेरा हो जाने पर हम लोग सुस्ताने और घोडों को आगम देने के लिए एक जगह कुछ देर तक ठहरे और फिर उसी तरह रथ पर सवार हो रवाना हुए। दोपहर होते-होते हम लोग एक ऐसी जगह पहुँचे जहा दो पहाडियों की तलहटी (उपत्यका) एक साथ मिली थी। वहाँ सभों को सवारी छोड कर पैदल चलना पड़ा। में यह नहीं जानती कि सवारी साथ वाले और घोडे किधर रवाना किय गये या उनके लिये अस्तवल कहा बना हुआ था। मुझे और अन्ना को घुमाता और चलकर देता हुआ गदाधरसिह पहाड के दर्र में ले गया जहा एक छोटा सा मकान अनगढ पत्थर के ढोको से बना हुआ था, कदाचित् वह गदाधरसिह का अड्डा हो। वहाँ उमके कई आदमी थे जिनकी सूरत आज तक मुझे याद है। अब जो मै विचार करती हू तो यही कहने की इच्छा होती है कि वे लोग यदमाशी-बेरहमी और डकैती के साँचे में ढले हुए थे तथा उनकी सूरत-शक्ल और पोशाक की तरफ ध्यान देने से डर मालूम होता था। वहा पहुचकर गदाधरसिंह ने मुझसे और अन्ना से कहा कि तुम दोनों बेखौफ होकर कुछ दिन तक आराम करो, मैं सर्दू को छुड़ाने की फिक्र में जाता हू जहा तक होगा बहुत जल्द लौट आऊँगा। तुम दोनों को किसी तरह की तकलीफ न होगी, खाने-पीने का सामान यहाँ मौजूद ही है और जितने आदमी यहाँ है सब तुम्हारी खिदमत करने के लिए तैयार है इत्यादि बहुत सी बातें गदाधरसिंह ने हम दोनों को समझाई और अपने आदमियों स भी बहुत देर तक बातें करता रहा। दो पहर दिन और तमाम रात गदाधरसिह वहा रहा तथा सुबह के वक्त फिर हम दोनों को समझाकर जमानिया की तरफ रवाना हो गया। मैं तो समझती थी कि अब मुझे पुन किसी तरह की मुसीबत का सामना न करना पड़ेगा और मै गदाधरसिह की बदौलत अपनी मा तथा लक्ष्मीदेवी से भी मिलकर सदैव के लिये सुखी हो जाऊगी, मगर अफसोस मेरी मुराद पूरी न हुई और उस दिन के बाद मैंने गदाधरसिह की सूरत भी न देखी। मैं नहीं कह सकती कि वह किसी आफत में फस गया या रुपये की लालच ने उसे हम दोनों का भी दुश्मन बना दिया। इसका असल हाल उसी की जुबानी मालूम हो सकता है-वदि वह अपना हाल ठीक-ठीक कह दे तो। अस्तु अब में यह बयान करती है कि उस दिन के बाद मुझ पर क्या मुसीबतें गुजरी और मैं अपनी माँ के पास तक क्यों कर पहुची। गदाधरसिह के चले जाने के बाद आठ दिन तक तो मैं बेखौफ बैठी रही, पर नौवें दिन से मेरी मुसीबत की घडी फिर शुरू हो गई। आधी रात का समय था, में और अन्ना एक कोठरी में सोई हुई थी, यकायक किसी की आवाज सुनकर हम दोनों की आँखें खुल गई और तब मालूम हुआ कि कोई दर्वाजे के बाहर किवाड खटखटा रहा है। अन्ना ने उठकर दाजा खोला तो पण्डित मायाप्रसाद पर निगाह पड़ी! काठरी के अन्दर चिराग जल रहा था और मैं पण्डित मायाप्रसाद को अच्छी तरह पहचानती थी। दूसरा बयान इन्दिरा ने जब अपना किस्सा कहते-कहते पडित मायाप्रसाद का नाम लिया तो राजा गोपालसिह चौक गये और उन्होंने ताज्जुब में आकर इन्दिरा से पूछा, 'पडित मायापसाद कौन ? चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १६ ७११