पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७२४

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051 हुआ, मगर भूतनाथ ने उठकर उसे देखने का उद्योग इसलिए नहीं किया कि कहीं उसकी निगाह मुझ पर न पड़ जाय। जिस कमरे में भूतनाथ सोया था वह एक मजिल ऊपर था और वहा से रमना तथा दालान साफ-साफ दिखाई दे रहा था। वह आदमी घूम-फिर कर पुन उसी तिलिस्मी चबूतरे के पास जा खडा हुआ और कुछ दम लेकर चबूतरे के अन्दर घुस गया मगर थोड़ी देर बाद पुन वह चबूतरे के बाहर निकला। अबकी दफे वह अकेला न था बल्कि उसी ढग का लवादा ओढे चार आदमी और भी उसके साथ थे अर्थात् पॉच आदमी चबूतरे के बाहर निकले और पूरब तरफ वाले कोने. में जाकर सीढियों की राह ऊपर की मजिल पर गये। ऊपर की मजिल में चारो तरफ इमारत बनी हुई थी इसलिए भूतनाथ को यह न जान पड़ा कि वे लोग किधर गए या किस कोठरी में घुसे मगर इस बात का शक जरूर हो गया कि कहीं वे लोग कोठरी ही कोठरी घूमते हुए हमारे कमरे में न आ जाय, अस्तु उसने एक महीन चादर मुह पर ओढ ली और इस ढग से लेट गया कि दर्वाजा तथा तिलिस्मी चबूतरा इन दोनों की तरफ जिधर चाहे बिनासर हिलाये देख सके। आधे घण्टे के बाद भूतनाथ के कमरे का दर्वाजा खुला और उन्हीं पाँचों में से एक आदमी ने कमरे के अन्दर झाँक कर देखा। जब उसे मालूम हो गया कि दोनों आदमी बेखवर सो रहे हैं, तो वह धीरे से कमरे के अन्दर चला आया और उसके बाद बाकी 'के चारो आदमी भी कमरे में चले आये। पाँचो आदमी (या जो हो) एक ही रग-रग का लबादा या बुर्का ओढ़े हुए थे, केवल आँख की जगह जाली बनी हुई थी जिससे देखने में किसी तरह की अण्डस न पडे। उन पॉचों ने बड़े गौर से बलभद्रसिंह की सूरत देखी और एक ने कागज का एक लिफाफा उनके सिर्हाने की तरफ रख दिया. फिर भूतनाथ के पास आया और उसके सिहोने भी एकलिफाफारखकर अपने साथियों के पास चला गया। कई क्षण और ठहरकर ये पांचों आदमी कमरे के बाहर निकल गये और दर्वाजे को भी उसी तरह घुमा दिया जैसा पहिले था। उसी समय भूतनाथ भी उन पाँचों में से किसी को पकड लेने की नीयत से चारपाई पर से उतखडा हुआ और कमरे के बाहर निकला मगर कोई दिखाई न पड़ा। उसी जगह नीचे उतर जाने के लिए सीढिया थी, भूतनाथ ने समझा कि ये लोग इन्हीं सीढियों की राह नीचे उतर गए होंगे, अस्तु वह भी शीघ्रता के साथ नीचे उतर गया और घूमता हुआ बीच वाले रमने में पहुचा मगर उन पाँचों में से कोई भी दिखाई न दिया। भूतनाथ ने सोचा कि आखिर वे लोग घूम-फिर कर उसी तिलिस्मी चबूतरे के पास पहुचेगे इसलिए पहिले ही से वहाँ चलकर छिप रहना चाहिए। वह अपने को छिपाता हुआ उस तिलिस्मी चबूतरे के पास जा पहुंचा, और पीछे की तरफ जाकर इसकी आड में छिप कर बैठ गया। भूतनाथ को आड में छिपकर बैठे हुए आधे घण्टे से ज्यादा बीत गया मगर किसी की सूरत दिखाई न पड़ी तब वह उठ कर चबूतरे के सामने की तरफ आया जिधर का मुह खुला हुआ था। वह पत्थर का तख्ता जो हट कर जमीन के साथ लग गया था,अभी तक खुला हुआ था। भूतनाथ ने उसके अन्दर की तरफ झांककर देखा मगर अधकार के सबन से कुछ दिखाई न पडा, हॉ उसके अन्दर से कुछ बारीक आवाज जरूर आरही थी जिसे समझना कठिन था। भूतनाथ पीछे की तरफ हट गया और सोचने लगा कि अव क्या करना चाहिए। इतने ही में अन्दर की तरफ से कुछ खडखडाहट की आवाज आई और वह पत्थर का तख्ता हिलने लगा जो चबूतरे के पल्ले की तरह अलग हो गया था। भूतनाथ उसके पास से हट गया और वह पल्ला चबूतरे के साथ धीरे से लग कर ज्यों का त्यों हो गया। उस समय भूतनाथ यह कहता हुआ वहाँ से रवाना हुआ मालूम होता है वे लोग किसी दूसरी राह से इसके अन्दर पहुच गये ! भूतनाथ घूमता हुआ फिर अपने कमरे में चला आया और अपनी चारपाई पर से उस लिफाफे को उठा लिया जो उन लोगों मे से एक ने उसके सिहोंने रख दिया था।शमादान के पास जाकर लिफाफा खोला और उसके अन्दर से खत निकाल कर पढ़ने लगा । यह लिखा हुआ था - 'कल बारह बजे रात को इसी कमरे में मेरा इन्तजार करो और जागते रहो। भूतनाथ ने दो-तीन दफे उस लेख को पढा और फिर लिफाफे में रखकर कमर में खोंस लिया. इसके बाद बलभद्रसिह की चारपाई के पास गया और चाहा कि उनके सिने जो पत्र रक्खा गया है उसे भी उठाकर पढे मगर उसी समय बलभदसिह की आँख खुल गई और चारपाई पर किसी को झुके हुए देख वह उठ बैठा। भूतनाथ पर निगाह पड़ने से वह ताज्जुब में आकर बोला 'क्या मामला है ? भूत-इस समय एक ताज्जुब की बात देखने में आई है। वलभद-वह क्या? भूत-तुम जरा सावधान हो जाओ और मुझे अपने पास बैठने दो तो कहू । बलभद्र-(भूतनाथ के लिए अपनी चारपाई पर जगह करके ) आओ और कहो कि क्या मामला है ? भूतनाथ वलभद्रसिह की चारपाई पर बैठ गया और उसने जो कुछ देखा था पूरा-पूरा बयान किया तथा अन्त में देवकीनन्दन खत्री समग्र ७१६