पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७३४

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दि दर्वाजा कहना चाहिए बन्द हो गया आरमा अपने को पूरे अन्धकार में पाया । तिलिस्मी खञ्जर का कब्जा दबाकर राशनी की तो सामने एक छोटा सा दवाजा एक पल्ले का दिखाई पड़ा जिसमें बचने के लिए लोहे की दो कड़िया लगी हुई थीं। मैंने याए हाथ से एक म्दी पकडकर दर्वाजा खेचना चाहा मगर वह थोडा सा खिच कर रह गया सोचा कि इसमें दो कडिया इसीलिए लगी है कि दोनों हाथों से पकड़कर दर्वाजा खींचा जाय अस्तु तिलिस्मी खञ्जर म्यान में रख लिया जिससे पुन सधकार हो गया और इसके बाद दोनों हाथ मे दोनों कड़ियों को पकड़ कर अपनी तरफ खींचना चाहा मगर मेर दोनों हाथ उन कडियों में चिपक गये और दांजा भी न खुला। उस समय मै बहुत ही घबडा गया और हाथ छुड़ान क लिए जोर करने लगा। दस बारह मल के बाद वह कडी पीछे की तरफ हटी और मुझ खींचती हुई दूर तक ल गई। मैं यह कह नहीं सकता कि कड़ियों के साथ ही दर्वाजा का कितना बडा भाग पीछ की तरफ हटा था, मगर इतना मालूम हुआ कि मदालुवीं जमीन की तरफ जा रहा हू । आखिर जब उन कड़ियों का पीछे हटना यन्द हो गया तो मर दोनों हाथ भी छूट गए इसके बाद थोडी देर तक घडघडाहट की आवाज आती रही और तब तक में चुपचप खडा रहा। जब घडघडाहट की आवाज वन्द हो गई ता मैने तिलिस्मी खजर निकाल कर रोशनी की और अपने चारा तरफ गोर करक देखा। जिधर से ढालुवी जमीन उतरती हुई वहा तक पहुंची थी उस तरफ अर्थात् पीछे की तरफ पिना चोखट का एक दन्द दर्वाजा पाया जिससे मालूम हुआ कि अब मैं पीछे की तरफ नहीं हट सकता मगर दाहिनी तरफ एक और दर्वाजा देखकर में उसके अन्दर चला गया ओर दो कदम के बाद घूमकर फिर मुझे ऊची जमीन अर्थात् चढाय पड़ा जिसस साफ मालूम हा गया कि में जिधर से उतरता हुआ आया था अब उसीतरफ पुन जा रहा हू: कई कदम जाने के बाद पुन एक बन्द दर्याजा मिला मगर वह आपस आप खुल गया। जब में उसके अन्दर गया तो अपने को उसी शीशे वाले कमर में पाया ओर घूमकर पीछे की तरफ देखा ता साफ दीवार नजर पड़ी। यह नहीं मालूम होता था कि में किसी दर्वाजे को लाध कर कमर में आ पहुचा हू, इसी से मैं कहता हूं कि तिलिस्म बनान वाले मसखरे भी थे क्योंकि उन्हीं की चालाकियों ने मुझे घुमा-फिरा कर पुन उसी कमरे में पहुचा दिया जिसे एक तरह की जबर्दस्ती कहना चाहिए। मै उस कमरे में खड़ा हुआ ताज्जुब से उसी शीशे की तरफ देख रहा था कि पहिले की तरह दो आदमियों के बातचीत की आवाज सुनाई दी। मैं आपके साथ उस कमरे में तब तकजो बातें सुनने में आई थीं वे ही पुन सुनी और जिन लोगों का उत्स आईने के अन्दर आते-जाते दखा था उन्हीं को पुन देखा भी। नि सन्दह मुझे वडा ही ताज्जुब हुआ ओर मै बड़े गौर से तरह-तरह की बात को साच रहा था इतने ही में आपको आवाज सुनाई दी और आपकी आज्ञानुसार अजदहे के मुह में जाकर यहा तक आ पहुचा। आप यहा किस राह से आए है ? इन्द्र में भी उसी अजदहे क मुह में स होता हुआ आया हू और वहा आने पर मुझे जो-जो बातें मालूम हुई है उनसे शीशेवाल कम्रे का कुछ भेद मालूम हो गया। आनन्द-सो क्या? इन्द्रजीत-मरे साथ आओ में सय तमाशा तुम्हें दिखाता है। अपने छोटे भाइ को साथ लिये कुअर इन्द्रजीतसिह नीचे के खण्ड वाली सब चीजों को दिखाकर ऊपर वाले खण्ड में गये और वहा का विल्कुल हाल कहा। बाजा और मूरत इत्यादि भी दिखाया और बाजे के बोलने तथा मूरत के चलन फिरने क विषय में भी अच्छी तरह समझाया जिससे इन्दजीतसिह की तरह आनन्दसिह का भी शक जाता रहा इसके बाद आनन्दसिह ने पूछा अब क्या करना चाहिए ? इन्दजीत-यहा से बाहर निकलने के लिये दर्वाजा खोलना चाहिये। मैं यह निश्चय कर चुका है कि इस खण्ड के ऊपर जाने के लिये कोई रास्ता नहीं है और न ऊपर जाने से कुछ काम ही चलेगा अतएव हमें पुन नीचे वाल खण्ड में चलकर दर्वाजा ढूँढना चाहिये या तुम ने अगर कोई और यात सोची हो तो कहो। आनन्द-मै तो यह मोचता हूँ कि हम आखिर तिलिस्म तोडने के लिये ही तो यहा आए है इसलिये जहा तक बन पडे यहा की चीजों को तोङ-फोड और नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिये इसी बीच में कहीं न कहीं कोई दर्वाजा दिखाई दे ही जायगा। इन्दजीत-(मुस्कुराकर ) यह भी एक बात है खैर तुम अपने ही खयाल के मुताबिक कार्रवाई करो हम तमाशा देखते है। आनन्द-बहुत अच्छा तो आइये पहिले, उस दाजे का खोलें जिसके अन्दर पुतलिया जाती है। इतना कह कर आनन्दनिह उस दालान में गये जिसमें कमलिनी लाडिली तथा और ऐयारों की मूरतें थीं। हम ऊपर लिख चुके है कि ये मूरतें लोहे की नालियों पर चल कर जब शीशे पाली दीवार के पास पहुचती थीं तो वहा का दर्वाजा आप से आप खुल जाता था। आनन्दसिह भी उसी दर्वाजे के पास गये और कुछ सोचकर उन्हीं नालियों पर पैर रक्खा जिन पर पुतलिया चलती थीं। देवकीनन्दन खत्री समग्र ७२६