पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७३५

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दि । नालियों पर घेर रखने के साथ ही दर्वाजा खुल गवा और दाना भाई उस दर्वास के अन्दर चले गए। इहें वहा दो रास्ते दिखाई पडे, एक दर्वाजा तो बन्द था आर जमीर में एक भारी ताला लगा हुआ था और दूसरा रास्ता शीश वाली दीवार की तरफ गया हुआ था जिसमें पुतलियों के आने-जान के लिए नालिया भी बनी हुई थी। पहिल दोनों कुमार घुतलिया के चलने का हाल मालूम करन की नीयत से उसी तरफ गए और वहा अच्छी तरह घूम-फेर कर देखने और जॉच करने पर जो कुछ उन्हें मालूम हुआ उसका तत्व हम नीचे लिखते है। वहाँ शीशे की तीन दीवारें थी और हर एक के बीच में आदमियों के चलने-फिरने लायक रास्ता छूटा हुआ था। पहिली शीशे की दीवार जो कमरे की तरफ थी,सादी थी अर्थात् उस शीशे के पीछे पारे की कलई की हुई न थी हा उसके वाद वाली दूसरी शीश वाली दीवार में कलई की हुई थी और वहाँ जमीन पर पुतलियों के चलन के लिए नालिया भी कुछ इस ढग से बनी हुई थीं कि बाहर वालों को दिखाई न पडे और पुतलियाँ कलई वाले शीशे के साथ सटी हुई चल सकें। यही सबव था कि कमरे की तरफ से दखने वालेको शीशे के अन्दर आदमी चलता हुआ मालूम पडता था और उन नकली आदमियों की परछाई भी जो शीशे में पडती थी साथ सटे रहने के कारण देखने वाले को दिखाई नहीं पडती थी। मूरतें आगे जाकर घूमती हुई दीवार के पीछे चली जाती थी जिसके बाद फिर शीशे की दीवार थी और उस पर नकली कलई की हुई थी। इस गली में भी नाली यनी हुई थी और उसी राह से मूरतें लौटकर अपने ठिकाने जा पहुचती थी। इन सब चीजों को देखकर जव कुमार लौटे ती बन्द दर्याजे के पास आये जिसमें एक बड़ा सा ताला लगा हुआ था। खजर से जजीर काट कर दोनों भाई उसके अन्दर गये, तीन-चार कदम जाने के बाद नीचे उतरन के लिये सीढियाँ मिली। इन्द्रजीतसिह अपने हाथ में तिलिस्मी खजर लिए हुए रोशनी कर रहे थे। दोनों भाई सीढियाँ उतरकर नीचे चले गए और इसके बाद उन्हें एक यारीक सुरग में चलना पडा। थोड़ी देर बाद एक और दर्वाजा मिला, उसमें भी ताला लगा हुआ था। आनन्दसिह ने तिलिस्मी खजर से उसकी भी जजीर काट डाली- और दर्वाजा खोल कर दोनों भाई उसके भीतर चले गये इस समय दानों कुमारों ने अपने को एक बाग में पाया। वह बाग छोटे-छोटे जगली पेडों और लताओं से भरा हुआ था। यद्यपि यहाँ की क्यारियॉ निहायत खूबसूरत और सगमर्मर के पत्थर से बनी हुई थीं मगर उनमें सिवाय झाड झखाड के और कुछ न था। इसके अतिरिक्त और भी चारो तरफ एक प्रकार का जगल हा रहा था हाँ दो-चार पेड फल के वहाँ जहर थे और एक छोटी सी नहर भी एक तरफ से आकर बाग में घूमती हुई दूसरी तरफ निकल गई थी। बाग के बीचोबीच में एक छोटा सा बगला बना हुआ था जिसकी जमीन दीवार और छत इत्यादि सब पत्थर की और मजबूत बनी हुई थी मगर फिर भी उसका कुछ भाग टूट-फूट कर खराव हो रहा था। जिस समय दोनों कुमार इस बाग में पहुचे उस समय दिन बहुत कम बाकी था और ये दोनों भाई भी भूख-प्यास और थकावट से परशान हो रहे थे अस्तु नहर के किनारे जाकर दोनों ने हाथ-मुह धोया ओर जरा आराम ले कर जरूरी कामो के लिये चले गये। उससे छुट्टी पाने के बाद दो-चार फल तोडकर खाये और नहर का जल पोकर इधर-उधर घूमने-फिरने लगे। उस समय उन दोनों को यह मालूम हुआ कि जिस दर्वाजे की राह से वे दोनों इस बाग में आये थे वह आपसे आप ऐसा बन्द हा गया कि उसके खुलने की कोई उम्मीद नहीं। दोनों भाई घूमते हुए बीचवाले बगले में आये। देखा कि तमाम जमीन कूडा-कर्कट से खराब हो रही है। एक पेड से बड़े बडे पत्ते वाली छोटी डाली तोड जमीन साफ की और रात भर उसी जगह गुजारा किया। सुबह को जकरी कामों से छुट्टी पाकर दानों भाइयों ने नहर में दुपट्टा (कमरबन्द) धाकर सूखने को डाला और जब वह मूख गया तो स्नान-पूजा से निश्चिन्त हो दो चार फल खाकर पानी पीया और पुन बाग में घूमन लगे। इन्द्रजीत-जहाँ तक मैं सोचता हूयह वही वाग है जिसका हाल तिलिस्मी बाज से मालूम हुआ था मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता। आनन्द-नि सन्देह यह वही वाग है । यह बीचवाला बगला हमारा शक दूर करता है और इसीलिये जल्दी करके इस बाग के बाहर हो जाने की फिक्रन करनी चाहिया कहीं ऐसा न हो कि 'मनुयाटिका यही जगह हो और हम धोख में आकर इसके बाहर हो जाय। बाज ने भी यही कहा था कि यदि अपना काम किये बिना मनुवाटिका के बाहर हो जाओगे तो तुम्हारे किये कुछ भी न होगा न ता पुन मनुवाटिका में जा सकोगे और न अपनी जान बचा सकोगे। इन्द-रिक्तग्रन्थ में तो यही बात लिखी है इसीलिये मै भी यहाँ से बाहर निकल चलने के लिये नहीं कह सकता मगर अब जिस तरह हो उस पिण्डी का पता लगाना चाहिये। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १६ ७२७