पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७३६

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ler पाठक, तिलिस्मी किताच (रिक्तग्रन्थ) और तिलिस्मी बाज से दानाकुमारों को यह मालूम हुआ था कि मनुवाटिका में किसी जगह,जमीन पर एक छोटी सी पिण्डी बनी हुई मिलेगी। उसका पता लगाकर उसी को अपने मतलब का दर्वाजा समझना। यही सवव था कि दोनों कुमार उस पिण्डी का खाज निकालने की फिक्र में लगे हुए थे मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता था। लाचार उन्हें कई दिनों तक उस बाग में रहना पडा, आखिर एक धनी झाडी क अदर उस पिण्डी का पता लगा । वह करीब हाथ भर के ऊची और तीन हाथ क घर में होगी और यह किसी तरह भी मालूम नहीं हो रहा था कि वह पत्थर की है या लोहे-पीतल इत्यादि किसी धातु की बनी हुई है। जिस चीज से वह पिण्डी बनी हुई थी उसी चीज से बना हुआ सूर्यमुखी का एक फूल उसके ऊपर जड़ा हुआ था और यही उस पिण्डी की पूरी पहिचान थी। आनन्दसिह ने खुश होकर इन्दजीतसिंह से कहा--- आनन्द-वारे किसी तरह ईश्वर की कृपा से इस पिण्डी का पता तो लगा। मैं समझता हू इसमें आपको किसी तरह का शक न होगा? इन्द्र-मुझ किसी तरह का शक नहीं है यह पिण्डी नि सन्देह वही है जिसे हम लोग खोज रहे थे। जब इस जमीन को अच्छी तरह साफकर के अपने सच्चे सहायक रिक्तग्रन्थ से हाथ धो बैठने के लिये तैयार हो जाना चाहिये। आनन्द-जी हाँ ऐसा ही होना चाहिये यदि रिक्तगन्थ में कुछ सदेह हो तो उसे पुन देख जाइये। इन्द-यद्यपि इस ग्रन्थ में मुझे किसी तरह का सन्देह नहीं है और जो कुछ उसमें लिखा है मुझे अच्छी तरह याद है मगर शक मिटाने के लिये एक दफे उलट-पलट कर जरुर दख लूंगा। आनन्द-मेरा भी यही इरादा है। यह काम घण्टे दो घण्ट के अन्दर हो भी जायगा। अस्तु आप पहिले रिक्तग्रन्थ देख जाइये तब तक मैं इस झाड़ी को साफ किये डालता है। इतना कह कर आनन्दसिह ने लिलिस्मी खञ्जर से काट के पिण्डी के चारों तरफ के झाड़-झखाड को साफ करना शुरू किया और इन्द्रजीतसिंह नहर के किनार बैठकर तिलिस्मी किताव को उलट-पुलट कर देखने लगा थोडी दर बाद इन्द्रजीतसिह आनन्दसिह के पास आये और बोल- ला अब तुम भी इस दखकर अपना शक मिटा लो और तब तक तुम्हारे काम को में पूरा कर डालता हूँ आनन्दसिह ने अपना काम छोड दिया और अपने भाई के हाथ से रिक्तग्रन्थ लेकर नहर के किनारे चले गये तथा इन्द्रजीतसिंह न तिलिस्मी खजर से पिण्डी के चारो तरफ की सफाई करनी शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में जो कुछ घास फूस झाड-झखाड़ पिण्डी क चारो तरफ था साफ हा गया और आनन्दसिह भी तिलिस्मी किताव देखकर अपने भाई के पास चले आये और बोले, अब क्या आज्ञा है? इसके जवाब में इन्द्रजीतसिह न कहा बस अब नहर के किनारे चला और रिक्तग्रन्थ का आटा गूधा । दोनों भाई नहर के किनारे आये और एक ठिकाने साएदार जगह देखकर बैठ गय। उन्होंने नहर के किनारेवाल एक पत्थर की चट्टान का जल से अच्छी तरह धोकर साफ किया और इसके बाद रिक्तग्रन्थ पानी में डुबो कर उस पत्थर पर रख दिया। देखते ही देखते जो कुछ पानी रिक्तग्रन्थ में लगा था सब उसी में पच गया। फिर हाथ से उस पर डाला वह भी पच गया। इसी तरह वास्बार चुल्लू भर भर कर उस पर पानी डालने लगे और ग्रन्थ पानी पी पी कर मोटा होने लगा। थोड़ी देर के बाद वह मुलायम हो गया और तब आनन्दसिह ने उसे हाथ से मल के आटे की तरह गूथना शुरू किया। शाम हान तक उसकी सूरत टीक गूथे हुए आटे की तरह हो गई मगर रग इसका काला था। आनन्दसिंह ने इस आटे को उठा लिया और अपने भाई के साथ उस पिण्डी के पास आकर उसकी आज्ञानुसार तमाम पिण्डी पर उसका लेप कर दिया। इसी के बाद दोनों भाई यहा से किनारे हो गये और जरूरी कामों में छुट्टी पाने के काम में लगे । . नौवां बयान रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है और दोनों कुमार बाग क चीच वाले उसी दालान में सोये हुए है। यकायक किसी तरह की भयानक आवाज सुनकर दोनों भाइयों की नींद टूट गई और वे दोनों उठकर जगले के नीचे चले आयें चारों तरफ देखने पर जब इनकी निगाह उस तरफ गई जिधर वह पिण्डी थी तो कुछ रोशनी मालूम पडी, दोनों भाई उसके पास गये तो देखा कि उस पिण्डी में से हाथ भर ऊँची लाट निकल रही है। यह लाट (आग की ज्योति) नीले और कुछ पीले रंग की मिली-जुली थी। साथ ही इसके यह भी मालूम हुआ कि लाह या राल की तरह वह पिण्डी गलती हुई जमीन के अन्दर धसती चली जा रही है। उस पिण्डी में से जो धूआ निकल रहा था उसमें धूप या लोबान की भी खूशबू आ रही थी। देवकीनन्दन खत्री समग्र ७२८