पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७३७

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दि थोडी देर तक दोनों कुमार वहा खडे रह कर यह तमाशा देखते रहे, इसके बाद इन्द्रजीतसिह यह कहते हुए यगले की तरफ लौटे ऐसा तो होना ही था मगर उस भयानक आवाज का पता न लगा शायद इसी में स वह आवाज भी निकली हो। इसके जवाब में आनन्दसिंह ने कहा, शायद ऐसा ही हो । दोनों कुमार अपने ठिकाने चले आए और बची हुई रात बातचीत में काटी क्योंकि खुटका हो जाने के कारण फिर उन्हें नींद न आई। सवेरा होने पर जब वे दोनों पुन उस पिण्डी के पास गए तो देखा कि आग बुझी हुई है और पिण्डी की जगह बहुत सी पीले रंग की राख मौजूद है। यह देख दोनों माई वहा से लौट आए और अपने नित्यकर्म से छुट्टी पा पुन वहा जाकर उस पीले रंग की राख को निकाल वह जगह साफ करने लगे। मालूम हुआ कि वह पिण्डी जो जल कर राख हो गई है लगभग तीन हाथ के जमीन के अन्दर थी और इसीलिए राख साफ हो जाने पर तीन हाथ का गडहा इतना लम्बा-चौडा निकल आया कि जिसमें दो आदमी बखूबी जा सकते थे। गडहे के पेंदे में लोहे का एक तख्ता था जिसमें कडी लगी हुई थी। इन्द्रजीतसिह ने कडी में हाथ डाल कर वह लोहे का तख्ता उठा लिया और आनन्दसिंह को देकर कहा 'इसे किनारे रख दो। लोहे का तख्ता हटा देने के बाद ताले के मुह की तरह एक सूराख नजर आया जिसमें इन्द्रजीतसिह ने वही तिलिस्मी ताली डाली जो पुतली के हाथ में से ली थी। कुछ तो वह ताली ही विचित्र बनी हुई थी और कुछ ताला खोलते समय इन्दजीतसिह को बुद्धिमानी से भी काम लेना पड़ा। ताला खुल जाने बाद जब दर्वाजे की तरह का एक पल्ला हटाया गया तो नीचे उतरने के लिए सीढिया नज़र आईं। तिलिस्मी खञ्जर की रोशनी के सहारे दोनों भाई नीचे उतरे और भीतर से दर्वाजा बन्द कर लिया क्योंकि ताल का छेद दोनों तरफ था और वही ताली दोनों तरफ काम देती थी। पन्द्रह या सोलह सीढिया उतर जाने के बाद दोनों कुमारों को थोड़ी दूर तक एक सुरंग में चलना पड़ा। इसके बाद ऊपर चढ़ने के लिए पुन सीढिया मिली और तब उसी ताली से खुलने लायक एक दर्वाजा। सीढिया चढने और दर्वाजा खोलने के बाद कुमारों को कुछ मिट्टी हटानी पड़ी और इसके बाद वे दोनों जमीन के बाहर निकले। इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक और ही बाग में पाया जो लम्बाई-चौडाई में उस बाग से कुछ छोटा था जिसमें से कुमार आये थे। पहिले बाग की तरह यह बाग भी एक प्रकार से जगल हो रहा था। इन्दिरा की मा अर्थात् इन्द्रदेव की स्त्री इसी बाग में मुसीबत की घडिया काट रही थी और इस समय भी इसी बाग में मौजूद थी इसलिए बनिस्बत पहिले बाग के इस बाग का नक्शा कुछ खुलासे तौर पर लिखना आवश्यक है। इस बाग में किसी तरह की इमारत न थी, न तो कोई कमरा था और न कोई बगला या दालान था, इसलिए बेचारी स' को जाडे के मौसिम की कलेजा दहलाने वाली सर्दी, गर्मी की कडकडाती हुई धूप और बरसात का मूसलाधार पानी अपने कोमल शरीर के ऊपर बर्दाश्त करना पड़ता था। हा कहने के लिए ऊँचे बड और पीपल के पेड़ों का कुछ सहारा हो तो हो मगर बड़े प्यार से पाली जाकर दिन-रात सुख ही से बिताने वाली एक पतिव्रता के लिए जगलों और भयानक पेडों का सहारा सहारा नहीं कहा जा सकता बल्कि वह भी उसके लिए डराने और सताने का सामान माना जा सकता है हा वहा थोडे से पेड ऐसे भी जरूर थे जिनके फलों को खाकर पति-मिलाप की आशालता में उलझी हुई अपनी जान को बचा सकती थी और प्यास दूर करने के लिए उस नहर का पानी भी मौजूद था जो मनुवाटिका में से होती हुई इस बाग में भी आकर बेचारी सर्दू की जिन्दगी का सहारा हो रही थी। पर तिलिस्म बनाने वालों ने उस नहर को इस योग्य नहीं बनाया था कि कोई उसके मुहाने को दम भर के लिए सुरग मान कर एक बाग सेदूसरे बाग में जा सके। इस बाग की चहारदीवारी में भी विचित्र कारीगरी की गई थी। दीवार कोई छू भी नहीं सकता था कई प्रकार की धातुओं से इस बाग की सात हाथ ऊँची दीवार बनाई गई थी। जिस तरह रस्सियों के सहारे कनात खडी की जाती है शक्ल-सूरत में वह दीवार वैसी ही मालूम पडती थी अर्थात् एक-एक दो-दो कहीं-कहीं तीन तीन हाथ की दूरी पर दीवार में लोहे को जजीरें लगी हुई थी जिसका एक सिरा तो दीवार के अन्दर घुस गया था और दूसरा सिरा जमीन के अन्दर । चारो तरफ की दीवार में से किसी भी जगह हाथ लगाने से आदमी के बदन में बिजली का असर हो जाता था और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पडता था। यही सबब था कि बेचारी सर्दू उस दीवार के पार हो जाने के लिए कोई उद्योग न कर सकी बल्कि इस चेष्टा में उसे कई दफे तकलीफ भी उठानी पडी। इस याग के उत्तर की दीवार के साथ सटा हुआ एक छोटा सा मकान था। इस याग में खडे होकर देखने वालों को तो यह मकान ही मालूम पड़ता था मगर हम यह नहीं कह सकते कि दूसरी तरफ से उसकी क्या सूरत थी। इसकी सात खिडकिया इस बाग की तरफ थीं जिनसे मालूम होता था कि यह इस मकान का एक खुलासा कमरा है। इस बाग में आने पर सबके पहिले जिस चीज पर कुअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह पड़ी,वह यही कमरा था और उसकी तीन चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १६ ७२९