पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७४

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कह आये थे। उन सिपाहियों के पहुंचते ही धीरसन ने हुक्म दिया कि चचलसिह और उपके मातहती के सब सिपाहियों की मुश्के योध लो और हमारे घर ले जाकर खूब हिफाजत से रक्खो। इसके बाद अपने दस सिपाहियों को कई बातें.समझा कर चोर फाटक के पहरे पर तैनात किया और दर्वाजा खोल कर बाहर निकले। उस छोटी किश्ती पर पहुचे जो जरूरत पर काम देने के लिये खाई के किनारे यधी हुई थी। डाँड़ उठा कर देखा तो गीला पाया कुछ ऊची आवाज में बोले-"बराक वही हुआ जो मैं सोचता हूँ ! एक सिपाही को अपने पास बुला लिया और डोंगी खे कर पार उतरने के बाद उस डोंगी को फिर अपने ठिकाने ले जा कर बाँध देने का हुक्म दिया। बीरसेन सीधे मैदान की तरफ कदम बढाये चले गए और घण्टे भर बाद उस पीपल के पेड़ के पास पहुंचे जिसके नीचे कसे कसाये दो घोडे बधे थे और एक साईस खड़ा था। पाठक समझ ही गए होंगे कि इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक मर्द को साथ लिये कालिन्दी पहुंचने वाली थी बल्कि यो कहना चाहिये कि इन्हीं घोड़ों पर सवार हो वे दानों भागने वाले थे। देखिये अपने साथी मर्द का हाथ थामे वह कालिन्दी भी आ रही है वीरसेन पहिले ही पहुंच चुके हैं देखें क्या करते हैं। इक्कीसवां बयान जिस समय वीरसेन पीपल के पेड़ के नीचे पहुचे और उस साईस ने इन्हें देखा जो दोनों घाडों की हिफाजत कर रहा था तो उठ खड़ा हुआ और बीरसेन को यडे गौर से अपनी तरफ देखते पा कुछ धबद्धानासा हो गया, क्योंकि वीरसेन का सिपाहियाना ठाठ और उनकी बेशकीमत और चमकती हुई पोशक साधारण मनुष्यों के योग्य न थी परन्तु उस समय उसे कुछ ठाढस भी हुई जब उसने और दो आदमियों को सामने से अपनी तरफ आते देखा क्योंकि वह तुरन्त समझ गया कि ये दोनों वही हैं जिनके लिये मैं इस जगह दो घोड़ों को लिये मुस्तैद है। इस समय आसमान पर चमकते हुए तारों की रोशनी कुछ कम हो गई थी क्योंकि पूरब तरफ की सुफेदी चन्द्रमा की अवाई का इशारा कर रही थी। वीरसेन ने साईस से डपट कर पूछा ये घोड़े किसके है ? इसके जवाब में वह साईस कुछ बोल तो न सका मगर उसने उन दोनों आदमियों की तरफ हाथ का इशारा किया जो अब इस पेड़ के पास पहुचा ही चाहते थे। आखिर बीरसेन को कुछ ठहर कर राह देखनी ही पडी। जब वे दोनों भी वहाँ पहुच गये तो वीरसेन ने म्यान से तलवार निकाल ली और डपटकर कहा मे पहिले अपना नाम वीरसेन सेनापति बता कर तुम दोनों का नाम पूछता हूं।' बीरसेन सेनापति का नाम सुनकर साईस तो पहिले से भी ज्यादे घबडा गया और कालिन्दी भी डर के मारे कॉपन लगी, मगर उस आदमी ने अपना दिल कडा करक अदब से सलाम किया और कहा "मेरा नाम तारासिह है और में गयाजी का रहने वाला हूँ।" वीर-यह औरत जो तुम्हारे साथ है कौन और कहाँ की रहने वाली है ? तारा-मैं इसे नहीं पहिचानता इसने मरे ये दोनों घोडे किराये पर लिये हैं और इसी के लिय वीर-यस बस मैं समझ गया. ज्यादा बातचीत करना मैं नहीं चाहता तुमको इत्ती समय मेरे साथ किले में चलना होगा। तारा-बहुत खूब, मैं चलन को तैयार हू, मगर यह औरत वीर--इस भी मेरे साथ चलना होगा !(औरत की तरफ देख कर) चल आगे बढ । कालिन्दी-मैं तुम्हारे साथ किले में क्यों जाऊ ? वीर-इसका जवाब मैं कुछ भी न दूगा। कालिन्दी-(अपने साथी की तरफ देख कर) क्या तुम इसी लिये मेरे साथ आये हो ? आदमी-तो क्या मैं अपनी जान देने के लिये तुम्हारे साथ आया हू? ये यहाँ के मालिक है मै इनक इलाके में रहता हू, इसलिये जो ये हुक्म देगे वही मैं करूगा । वीर-(कालिन्दी से) तू अपने को किसी तरह छिपा नहीं सकती मै खूब पहिचानता हूँ कि.तू कालिन्दी है। वही कालिन्दी जिसने अपने कुल में दाग लगाया और वही कालिन्दी जिसने अपने मालिक के साथ निमकहरामी की। खैर, तिस पर भी मैं तुझे छोड़ देता हू और हुक्म देता है कि जहाँ तेरा जी चाहे चली जा मै देखा चाहता हूं कि ईश्वर तेरे पापो की तुझे क्या सजा देता है। (उसके साथी की तरफ देख के) देर मत कर और मेरे आगे आगे चल । इस समय साईस को तो सिवाय भागन के और कुछ भी न सूझा--वह अपनी जान लेकर एकदम वहाँ से भागा। 2 देवकीनन्दन खत्री समग्र १०८२