पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७७७

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- कुछ रोशनी रह सकती थी। आनन्दसिह ने चारों तरफ गौर से देखकर इन्दजीतसिह से कहा 'भैया रिक्तग्रन्थ में लिखा था कि यह कोठरी तुम्हें तिलिस्म के अन्दर पहुचावेगी मगर समझ में नहीं आता कि यह कोठरी किस तरह से हम लोगों का तिलिस्म के अन्दर पहुचावेगी क्योंकि इसमें न तो कही दर्वाजा दिखाई देता है और न कोई ऐसा निशान ही मालूम पड़ता है जिसे हमलोग दर्वाजा बनाने के काम में लावें। इन्द-हम भी इसी सोच विचार में पड़े हुए है मगर कुछ समझ में नहीं आता है। इसी बीच में दोनों कुमार और सर्दू के पैरों में झुनझुनी और कमजोरी मालूम होने लगी और वह बात की बात में इतनी ज्यादे बढ़ी कि वे लोग वहा स हिलने लायक भी न रहे। देखते-देखते तमाम बदन में सनसनाहट और कमजोरी ऐसी बढ़ गई कि वे तीनों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और फिर तनोवदनाकी सुध न रही। घण्टे भर के बाद कुँअर इन्द्रजीतसिह की वेहोशी जाती रही और वह उठ कर बैठ गए मगर चारो तरफ घोर अन्धकार छाया रहने के कारण यह नहीं जान सकतेथे कि वे किस अवस्था में या कहा पडे हुए है। सब से पहिले उन्हें तिलिस्मी खजर की फिक्र हुई कमर में हाथ लगानेपर उसे मौजूद पाया अस्तु उसे निकाल कर और उसका'कबजी दधाकर रोशनी पेदा की और ताज्जुब की निगाह स चारो तरफ देखने लगे। जिस स्थान में इस समय कुमार र्थ वह सुर्ख पत्थर से बना हुआ था और यहा की दीवारों पर पत्थर के गुलबूटों का काम बहुत खूबसूरती और कारीगरी का अनूटा नमूना दिखाने वाला बना हुआ था। चारों तरफ की दीवार में चार दर्वाजे थे मगर उनमें किवाड के पल्ले लग हुए न ये। पास ही कुँअर आनन्दसिह भी पडे हुए थे,परन्तु सर्दू कहीं पता न था जिससे कुमार को बहुत ही ताज्जुब हुआ। उसो समय आनन्दसिह की वेहोशी भी जाती रही और वे उठ कर घबराहट के साथ चारों तरफ दखते हुए कुँअर इन्द्रजीतसिह के पास आकर बोले- आनन्द-हम लोग यहा क्योंकर आये ? इन्दजीत-मुझे मालूम नहीं तुमसे थाडी ही देर पहिले मैं होश में आया हूँ और ताज्जुब के साथ चारों तरफ देख रहा आनन्द-और सर्प कहा चली गई? इन्दजीत यह भी नहीं मालूम तुम चारों तरफ की दीवारों में चार दर्वाजे देख रहे हो, शायद वह हमसे पहिले होश में आकर इन दर्वाजो में से किसी एक के अन्दर चली गई हो। आनन्द-शायद ऐसा ही हो चल कर देखना चाहिए। रिक्तग्रन्थ का कहा बहुत ठीक निकला आखिर उसी कोठरी ने हम लोगों को यहा पहुचा दिया मगर किस ढग से पहुचाया सो मालूम नहीं होता (छत की तरफ देख कर) शायद वह कोठरी इसके ऊपर हो और उसकी छत ने नीचे उतर कर हमलोगों को यहा लुढका दिया हो। इन्द्रजीत (कुछ मुस्कुरा कर) शायद ऐसा ही हो मगर निश्यय नहीं कह सकते, हा व्यर्थ न खडे रह कर सर्दू और नकाबपोशों का पता लगाना चाहिए। इन्दजीतसिह ने इतना कहा ही था कि दीदार वाले एक दर्वाजे के अन्दर से आवाज आई "बेशक बेशक !! तेरहवां बयान बेशक-पेशक की आवाज ने दोनों कुमारों को चौका दिया। वह आवाज सर्य की न थी और न किसी ऐसे आदमी की थी जिसे कुमार पहिचानते हों यह सबब उनके चौंकने का और भी था। दोनों कुमारों को निश्चय हो गया कि वह आवाज नकाबपोशों में से किसी की है जो तिलिस्म के अन्दर लटकाये गये थे और जिन्हें हमलाग खोज रहे है। ताज्जुब नहीं कि सर्य भी इन्हीं लोगों के सबब से गायब हो गई हो क्योंकि एक कमजोर औरत की बेहाशी हम लोगों की बनिस्बत जल्द दूर नहीं हो सकती। दोनों भाइयों के विचार एक से थे अतएव दानों ने एक दूसरे की तरफ देखा और इसके बाद इन्द्रजीतसिह और 5नके पीछे-पीछे आग दात उस पान के अन्दर चल गय जिसमें से किसी के बोसो की आवाज आई थी। कुछ आगे जाने पर कुमार को मालूम हुआ कि रास्ता सुरग के ढग का बना हुआहै-मगर बहुत छोटा और केवल एक ही आदमी के जाने लायक है अर्थात् इसकी चौडाई डेढ हाथ से ज्यादे नहीं है। लगभग बीस हाथ जानेबाद दूसरा दर्वाजा मिला जिसे लाध कर दोनों भाई एक छोटे बाग में गये जिसमें सब्जी की वनित्यत इमारत का हिस्सा बहुत ज्यादे था अर्थात् उसमें कई दालान कोठरिया और कमरे थे जिन्हें देखते ही चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १७