पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७७८

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ori इन्द्रजीतसिह ने आनन्दसिह से कहा, 'इसके अन्दर थोड़े आदमियों का पता लगाना भी कठिन होगा। दोनों कुमार दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि पीछे से दर्याजे के बन्द होने की आवाज आई घूम कर देखा ता उस दर्वाजे को बन्द पाया जिस लाध कर इस बागर्भ पहुंचे थे। दर्वाजा लोहे का और एक ही पल्ले का था जिसने चूहदानी की तरह ऊपर से गिर कर दर्वाज का मुंह चन्द कर दिया। उस दर्जि के पल्ले परमोटे-मोटे अक्षरों में यह लिखा हुआ था- 'तिलिस्म का यह हिस्सा टूटने लायक नहीं है, हा तिलिस्म को तोडने वाला यहा का तमाशा जरुर देख सकता है।" इन्द्रजीत यद्यपि तिलिस्मी तमाशे दिलचस्प होते है मगर हमारा यह समय बड़ा नाजुक हैं और तमाशा दखने योग्य नहीं क्योंकि तरह-तरह के तरदुदों ने दुखी कर रक्खा है। देखनाधाहिए इस तमाशबीनी स छुट्टी कब मिलती है। आनन्द मेरा भी यही ख्याल है बल्कि मुझे तो इस बात का अफसोस है कि इस याग में क्यों आए, अगर किसी दूसरे दर्वाजे के अन्दर गये होते तो अच्छा होता । इन्द्रजीत-(कुछ आगे बढ कर ताज्जुब से) देखा तो राही उस पड के नीच कौन बैठा है ! कुछपदिवान सकते हो? आनन्द-यद्यपि पोशाक में बहुत बड़ा फर्क है मगर भैरोसिह की सी मालूम पड़ती है ! इन्द्रजीत-मेरा भी यही ख्याल है आओ उसके पास चल कर देखें। आनन्द-बलिये। इस बाग के बीचा-बीच में एक कदम का यहुत बड़ा पेड था जिसके नीचे एक आदगी गाल पर हाथ रक्ये बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उसी को देख कर दानों कुमार चौके थे और उस पर भैरोसिह के हान का शक हुआ था। जब दोनों भाई उसके पास पहुचे तो शक जाता रहा और अच्छी तरह पहिचान कर इन्दजीतसिह ने पुकारा और कहा "क्यों यार भैरोसिह, तुम यहा कैसे आ पहुचे ? उम आदमी ने सर उठा कर ताज्जुप से दोनों कुमारों की तरफ देखा और तब हलकी आवाज में जवाब दिया. 'तुम दोनों कौन हो? मै तो सात वर्ष से यहा रहता हू मगर आज तक किसी ने भी मुझसे यह न पूछा कि तुम यहा कैस आ पहुचे ? आनन्द-कुछ पागल तो नहीं हो गये हो? इन्द-क्योंकि तिलिस्म की हवा बड़े-बडे चालाकों और एयारों को पागल बना देती है। भैरो-(शायद वह भैरोसिह ही हो ) कदाचित ऐसा ही हो मगर मुझे आज तक किसी ने भी यह नही कहा कि तू पागल हो गया है । मेरी स्त्री भी यहाँ रहती है, वह भी मुझ युद्धिमान ही समझती है। आनन्द-( मुस्कुरा कर ) तुम्हारी स्त्री कहा है ? उसे मरे सामने बुलाओं . मैं उससे पूछूगा कि वह तुम्हें पागल समझती है या नहीं। भैरो-वाह-वाह तुम्हारे कहने से मैं अपनी स्त्री को तुम्हारे सामने युलाालू ! कहीं तुम उस पर आशिक हो जाओ या वही तुम पर मोहित हो जाय तो क्या हो ? इन्द्रजीत-(इस कर) वह भले ही मुझ पर आशिक होजाय मगर मै वादा करता हू कि उस पर मोहित न होगा। भैरो सम्भव है कि मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास करलू मगर उसकी नौजनानी मुझे उस पर विश्वास नहीं करने देती। अच्छा ठहरों में उसे बुलाता हू । अरी ए री मेरी नौजवान स्त्री भोली ई ईई ! एक तरफ से आवाज आई. मै आप ही चली आ रही हू तुम क्यों चिल्ला रहे हो ? कम्बख्त को जब देखो गोली- मोली' करके चिल्लाया करता है ! भैरो-देखो कम्बख्त को !साठ घड़ी में एक पल भी सीधी तरह से बात नहीं करती। खैर, नौजवान औरतें ऐसी हुआ ही करती हैं। इतने में दोनों कुमारों ने देखा कि बाईं तरफ से एक नये वर्ष की बुद्धिया छड़ी टेकतीधीरे-धीरे चली आ रही है जिसे देखते ही भैरोसिह उठा और यह कहता हुआ उसकी तरफ बढ़ा, "आओ मेरी प्यारी मोनी। तुम्हारी नौजवानी तुम्हें अकड़ कर चलने नहीं देती.तो में अपने हाथों का सहारा देने के लिए तैयार है। भेरासिह ने बुढिया को हाय का सहारा देकर अपने पास ला चैठाया और आप भी उसी जगह मैठ कर बोला, “मेरी प्यारी भोली देखा ये दो नये आदमी आज यहा आये है जो मुझे पागल बताते हैं। तू ही बता कि क्या मैं पागल हू? युठिया--राम-राम ऐसा भी कभी हो सकता है ? मैं अपनी नौजवानी की कसम खा कर कहती है कि तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान बुड्ढ़े का पागल कहने वाला स्वय पागल है ।(दोनों कुमारों की तरफ देख कर) ये दोना उजडु यहा कैसे आ . देवकीनन्दन खत्री समग्र ७७०