पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७८८

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दि तारा-नहीं-नही तू बहुत बातों में मुझसे बढ़ के है, और मै भी अकेला समझ के तुझे गालिया नहीं देता बल्कि दोषी जान कर गालिया देता हू। तू अपनी स्त्री को साध्वी सती छोड के चाहे माता से भी बढ़कर समझ ले. मेरी कोई हानि नहीं है। मै वारतव में जिस काम के लिए आया था उसे कर चुका, अब यहा से जाकर मालिक से सब कह दूंगा और तेरे गम्भीर स्वभाव की प्रशसा भी करुंगा जिसे सुन कर तेरा बाप बहुत ही प्रसन्न होगा जो अपनी एक भूल के कारण हद्द से ज्यादे पछता रहा है और बदनामी का टीका मिटाने के लिए जी जान से उद्योग कर रहा है मगर तुझ कपूत के मारे कुछ भी करने नहीं पाता। (हस कर ) ऐसी कुलटा स्त्री को सती और साध्यी समझने वाला अपने को ऐयार कहे यही आश्चर्य है। नानक मेरे ऐयार होने में तुम्हें कुछ शक है । तारा-कुछ ? अजी बिल्कुल शक है ! नानक-यदि तुम ऐसा समझ भीलो तो इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है इससे ज्यादे तुम और कुछ भी नहीं कर सकते कि यहा से जाकर राजा बीरेन्द्रसिह से मेरी झूठी शिकायतें करो मगरइस बात को भी समझ लो कि मैं किसी का तावेदार नहीं हूँ? तारा-(क्रोध से ) तू किसी का तावेदार नहीं है? तारासिह को क्रोधित देखकर नानक डर गया केवल इसलिए कि इस जगह वह अकेला था और अकेले ही इस मकान में तारासिंह का मुकाबला करना अपनी ताकत से बाहर समझता था जिसके दो चेले भी यहा मौजूद थे अस्तु समय पर ध्यान देकर वह चुप हो गया मगर दिल में वह तारासिह का जानी दुश्मन हो गया। उसने मन में निश्चय कर लिया कि तारासिह को किसी न किसी ढग से अवश्य नीचा दिखाना बल्कि मार डालना चाहिए। नानक ने और भी न मालूम क्या सोधकर अपनी जुवान को रोका और सिर नीचा करके चुपचाप खडा रह गया। तारासिह ने कहा, बस अब तू जा और अपनी साध्वी तथा नौकर को भी अपने साथ लेता जा !" नानक ने इस आज्ञा को गनीमत समझा और चुपचाप वहा से रवाना हो गया। उसकी स्त्री और नानक भी उसके पीछे चल पडे। उसी समय तारासिंह ने भी अपना डेरा कूच कर दिया और शहर के बाहर हो चुनार का रास्ता लिया. मगर दिल में सोच लिया कि कम्बख्त नानक अवश्य मेरा पीछा करेगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि धाखा देकर जान लेने की फिक्र भी करे। दूसरा बयान सध्या हुआ ही चाहती है। पटने की बहुत बड़ी सराय के दर्वाजे पर मुसाफिरों की भीड हो रही है। कई भठियारे भी मौजूद है जो तरह-तरहाके आराम की लालच दे अपनी-अपनी तरफ मुसाफिरों को ले जाने का उद्योग कर रहे हैं और मुसाफिर लोग भी अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके साथ जा कर डेरा डाल रहे हैं। मुसाफिरों भठियारी के सुपुर्द करके भठियारे पुन सराय के फाटक पर लौट आते और नए मुसाफिरों को अपनी तरफ ले जाने का उद्योग करते है। यह सराय बहुत बड़ी और इसका फाटक मजबूत तथा बडा था। फाटक के दोनों तरफ (मगर दाजे के अन्दर) वारह सिपाही और एक जमादार का डेरा था जो इस सराय में रहने वाले मुसाफिरों की हिफाजत के लिए राजा की तरफ से मुकर्रर थे। उनकी तनखाह सराय के भठीयारों से वसूल की जाती थी। ये ही सिपाही वारी-बारीसे घूम कर सराय के अन्दर पहरा दिया करते थे और जय मुसाफिरों की किसी तरह की तकलीफ होती तो सीधे राज दीवान के पास जाकर रण्ट किया करते थे। थोडी देर बाद जब सब मुसाफिरों का वन्दोवस्त हो गया और सराय के फाटक पर कुछ सन्नाटा हुआ तो उन सिपाहियों का जमादार अपनी जगह से उठकर सराय के अन्दर इसलिए घूमने लगा कि देखें सब मुसाफिरों का ठीक-ठीक बन्दोबस्त हो गया या नहीं। वह जमादार कवल घूमता ही न था बल्कि भठियारों से भी तरह-तरह के सवाल करके मुसाफिरों का हाल दरियाफ्त करता जाता था। जमादार घूमता हुआ जप उत्तर तरफ वाले उस कमरे के पास पहुचा जो इस सराय में सबसे अच्छा ऊया दो मजिला और अमीरां के रहने लायक बना और सजा हुआ था तो कुछ देर के लिए अटक गया और उस कमरे तथा उसमें रहने वालों की तरफ ध्यान देकर देखने लगा क्योंकि उसमें एक जवहरी का डेरा पडा हुआ था जो बहुत मातदार मालूम होता था। वह जवहरी भी जमादार को देखकर कमरे के बाहर निकल आया और इशारे स जमादार का अपने पास बुलाया। देवकीनन्दन खत्री समग्र ७८०