पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८०७

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R इन्द्रजीत-यह तुम्हारी खुशनसीवी थी कि सुबह के वक्त ऐसी खूबसूरत औरत का मुह दखा । भैरो-उसी का यह फल मिला कि जान बच गई ओर आपसे मिल सका। इन्द्रजीत-खैर तब क्या हुआ । भैरा-मैने धन्यवाद देकर इन्द्रानी से पूछा कि तुम कौन हो और यह मकरन्द कौन था ? इसके जवाब में इन्द्रानी ने कहा कि यह तिलिस्म है यहा के भेदों को जानने का उद्योग न करो, जो कुछ आप से आप मालूम होता जाय उसे - समझते जाआ। इस तिलिस्म में तुम्हारे दोस्त और दुश्मन बहुत है, अभी तो आए हौ दो चार दिन में बहुत सी बातों का पता लग जाएगा हा अपने बारे में मैं इतना जरुर कह दूंगी कि इस तिलिग्न की रानी हूँ और तुम्हें तथा दोनों कुमारों को अच्छी तरह जानती हूँ। इन्द्रानी इतना कह के चुप हो गई और पीछे की तरफ देखने लगी। उसी समय ओर भी चार पाच औरतें वहा आ पहुंची जो खूबसूरत कमसिन और अच्छे गहने कपडे पहिरे हुए थीं । मने किशोरी कामिनी वगैरह का हाल इन्दानी से पूछना चाहा मगर उसने बात करने की माहलत न दी और यह कह कर मुझ एक ओरत के सुपुर्द कर दिया कि यह तुम्हें कुअर इन्द्रजीतसिह के पास पहुंचा दगी । इतना कह कर बाकी औरतों को साथ लिए हुए इन्द्रानी चली गई और मुझे तरदुद में छोड़ गई । अन्त में उसी औरत की मदद स में यहा तक पहुंचा। इन्दजीत-आखिर उस औरत से भी तुमने कुछ पूछा या नहीं ? भैरो -पूछा तो बहुत कुछ मगर उसने जवाब एक बात का भी न दिया मानों वह कुछ सुनती ही न थी। हा एक बात कहना तो मै भूल ही गया। इन्द्र-वह क्या? भैरो-इन्द्रानी के चले जाने के बाद जब मै उस औरत के साथ इधर आ रहा था तब रास्ते में एक लपेटा हुआ कागज मुझे मिला जो जमीन पर इस तरह से पड़ा हुआ था जैसे किसी राह चलते की जेब से गिर गया हो। (कमर से कागज निकाल कर और कुँअर इन्द्रजीतसिह के हाथ में दे कर) लीजिए पदिए मैं तो इसे पड कर पागल सा हो गया था। भैरोसिह के हाथ स कागज लकर कुअर इन्द्रजीतसिह ने पढा और उसे अच्छी तरह देख कर भैरोसिह से कहा 'बडे आश्चर्य की बात है मगर यह हा नहीं सकता, क्योंकि हमारा दिल हमारे कब्जे में नहीं है और न हम किसी के आधीन है। आनन्द-भैया जरा मै भी देखू यह कागज कैसा हे और इसमें क्या लिखा है ? इन्दजीत-(वह कागज देकर ) लो दखो। आनन्द--(कागज पढकर और उसे अच्छी तरह देखकर ) यह तो अच्छी जबर्दस्ती है मानो हम लोग कोई चीज ही नही है। (भैरोसिह से जिस समय यह चीठी तुमने जमीन पर से उठाई थी उस समय उस औरत ने भी देखा या तुमसे कुछ कहा था कि नहीं जो तुम्हारे साथ थी? भैरो-उसे इस बात की कुछ भी खबर नहीं थी क्योंकि वह मरे आगे-आगे चल रही थी। मैने जमीन पर से चीठी उठाई भी और पढी भी मगर उसे कुछ भी मालूम न हुआ। मुझे ता शक होता है कि वह गूगी और वहरी अथवा हद्द से ज्यादे सूधी और बेवकूफ थी। आनन्द--इस पर मोहर इस ढग की पड़ी है जैसे किमी राजदार की हो। भैरो-बेशक ऐसी ही मालूम पड़ती है। (हस कर इन्द्रजीतसिह से) चलिए आपके लिए तो पौ बारह है किस्मत का चनी हाना इसे कहते है। इन्द्र-तुम्हारी ऐसी की तैसी। पाठकों के सुबीते के लिए हम उस चोठी की नकल यहा लिख देते हैं जिर्स पढ कर और देख कर दोनों कुमारों और भैरोसिह को ताज्जुब मालूम हुआ था- 'पूज्यवर पत्र पाकर चित्त प्रसन्न हुआ। आपकी राय बहुत अच्छी है। उन दोनों के लिए कुअर इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिह ऐसा पर मिलना कठिन है, इसी तरह दोनों कुमारों को भी ऐसी स्त्री नहीं मिल सकती। बस अब इसमें सोच विचार करने की कोई जरूरत नहीं, आपको आज्ञानुसार में सात पहर के अन्दर ही सब सामान दुरुस्त कर दूंगा। बस परसों ब्याह हो जाना ही ठीक है। बड़े लोग इस तिलिस्म में जो कुछ दहेज की रकम रख गये है वह इन्हीं दोनों कुमारों के योग्य है । यद्यपि इन दोनों का दिल चुटिला हो चुका है परन्तु हमारा प्रताप भी तो कोई चीज है ! जब तक दोनों कुमार आपकी आज्ञा न मानेंगे तब तक जा कहा सकते है, अन्त को वह होना आवश्यक है जो आप चाहते है। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १८ ७९९