पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८२

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दि पच्चीसवां बयान सुबह का सुहावना समा सभी के लिये एक सा नहीं होता। यद्यपि आज ही सुबह उन लोगों के लिये जो हर तरह से खुश है सुखदाई है परन्तु उस होनहार जयामर्द की सुबह दुखदाई जान पड़ती है जिसका नाम रनबीरसिह है और जिसका हाल अब इस बयान में हम लिखेंगे। पारिजात के घने जगल में एक पेड़ के नीचे रनवीरसिह अपन को कोमल पतों के विछावन पर पड़े हुए पाते हैं। सुबह की ठडी ठडी हवा ने उनको जगा दिया है और वे ताज्जुब भरी निगाहों से चारो तरफ देख रहे हैं और जब अपने यकायक यहाँ आने का सबब नहीं मालूम होता तो यह सोच कर फिर आखें बन्द कर लते है कि अवश्य यह निद्रा की अवस्था है और मै स्वप्न देख रहा हू। जागने की बनिस्बत स्वप्न का भ्रम जो उन्हें विशेष हो रहा है इसका एक सयब यह भी है कि उनके जख्मों पर यद्यपि अभी तक पट्टी बंधी हुई है मगर दर्द की तकलीफ बिलकुल नहीं है। कल तक उनके जख्मी हाथ में ताकत बिल्कुल न थी परन्तु इस समय उसे बखूबी हिलाडुला सकते है कमजोर वदन में इस समय ताकत मालूम होती है. और वे अपने को बखूबी चलने फिरने के लायक समझते है। जख्मी आदमी की अवस्था थोड़ी ही देर में यकाय इस तरह नहीं बदल सकती इस बात को साच कर उन्होंने दिल में निश्चय कर लिया कि यह स्वप्न है और फिर आंखें बन्द कर ली। मगर थोडी देर तक चुपचाप पड़े रहने के बाद फिर आखें खोलकर उठ बैठे और अचम्भे में आकर चारों तरफ देखते हुए धीरे धीरे बोलने लगे "ओफ इस स्वप्न से किसी तरह छुट्टी नहीं मिलती। क्या जाने वास्तव में यह स्वप्न है भी या नहीं 1 (अपने हाथ में चिकोटी काट कर) नहीं नहीं, यह स्वप्न नहीं है, और देखो पहिले जब आँख खुली थी तो पूरय तरफ सूर्य की कवल लालिमा दिखाई देती थी परन्तु इस समय धूप अच्छी त ह निकल आई है । यद्यपि गुजान पड़ों के समय से पूरी धूप यहाँ तक नहीं पहुंचती कंवल बुन्दकियों का मजा दिखा रही है तथापि कुछ गर्मी मालूम हाती है । (खर्ड होकर ओर दो चार कदम टहल कर) नहीं नहीं नहीं यह स्वप्न कदापि नहीं है मगर आश्चर्य की बात है कि यकायक मैं यहाँ क्योकर आ पहुचा और मेरे कमजार तथा जखमी बदन में चलने फिरने की सामर्थ्य कहाँ से आ गई! (जख्म पर बंधी हुई पट्टियों की तरफ देख कर) ये घट्टिया वह नहीं है जो कुसुम के जर्राह ने लगाई थी येशक किसी न बदली है। (एक पट्टीयाल कर वह मरहम भी नहीं है यह तो किसी किस्म की घास पीस कर लगाई हुई है 'आश्चय आश्चर्य ईश्वर ने जड़ी बूटियों में भी क्या सामर्थ्य दी है । जरम विल्कुल ही मुद गए है मगर मालूम नहीं एक ही दिन में यह बात हे या कई दिनों में? आज ही यहाँ आया हू या कई दिन से इस जमी पर पडा हू? मुझ यहा कौन लाया ? यद्यपि मेरी बीमारी तो दूर हो गई परन्तु यह नेकी करने वाले ने मुझ एक उससे भी बड़ी बीमारी में डाल दिया। वह बीमारी कुसुम की जुदाई की है। जलों में दवा लगाने के बदले यदि नमक पीसकर डाल दिया जाता तो इतनी तकलीफ न हाती जितनी कुसुम की जुदाई से हो रही है इसीलिए कुछ समझ में नहीं आता कि में इस नेकी कहू या बदी ? यह ला दाहिनी आख भी फडक रही है। लोग इसे अच्छा कहते है मगर में क्योंकर अच्छा कहू और कैसे समयूं कि किसी तरह की खुशी मुझे होगी ? में अपनी तमाम खुशी कुसुम की खुशी के साथ समझता हू! इस समय उसकी जुदाई में तो अधमुआ हा ही रहा हू मगर मुझ खोकर वह भी बहुत ही पछताती होगी। हाय उस आदमी की सूरत भी नहीं दिखाई देती जो उस किले के अन्दर स मुझे इस तरह उठा लाया कि किसी को कानों कान खबर तक न हुई। यह कोन है ? (जोर से) यहाँ अगर कोई है ता मेरे सामने आय । मगर रनबीरसिह की बात का किसी ने कोई जवाब न दिया, वे और भी घबड़ाये और सोचने लगे कि अब बिना इधर उधर घूमे कुछ काम न चलेगा कोई मिले तो उससे पूछ्रे कि तेजगढ किधर और यहाँ से कितनी दूर है। अफसोस इस समय मेरे पास कोई हर्वा भी नहीं है । यदि किसी दुश्मन से मुलाकात हो जाय तो मैं क्या कर सकूगा? यकायक रनबीरसिह की निगाह एक लिखे हुए कागज पर जा पडी जो उस पेड़ के साथ चिपका हुआ था जिसके नीचे कोमल पत्तों के बिछावन पर उन्होंने अपने को पाया था। पास जाकर देखा तो यह लिखा हुआ था - उसको मत भूलो जिसने तुमको सब योग्य बनाया । पश्चिम की तरफ जाओ जहा तक जा सको। दोस्त और दुश्मनों से होशियार रहो।" इसके पढने से एक नई फिक पैदा हुई क्योंकि उस कागज में पश्चिम तरफ जाने की आज्ञा के साथही दोस्त और दुश्मनों से अपने को बचाने के लिए ध्यान दिलाया गया था। थोड़ी देर तक तो खडे खड़े कुछ सोचते रहे, अन्त में यह कहते हुए पश्चिम तरफ को चल निकले कि -जो होगा देखा जायगा देवकीनन्दन खत्री समग्र १०६०