पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८३६

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LE 2 मैं-असली लक्ष्मीदेवी से गापालसिह की शादी हुई ही नहीं यह यचारी तो मनो-(बात काट कर ) हा-हा यह हाल मुझे भी मालूम है मगर इस समय जा राजरानी बनी हुई है लाग तो उसी कोन लक्ष्मीदेवी समझे हुए है इसी से मन उस लक्ष्मीदवी कहा मै-( आँखों में आसू भरकर } तो क्या मरा बाप भी कैद हो गया मना-वशक मैने उसके छुडाने का भी वन्दोवस्त कर लिया है क्योकि तुझे ता शायद मालूम ही होगा कि तेरे बाप न मुझ भी थाडी बहुत ऐयारी सिखा रक्खी हे अस्तु वहीं एयारी इस समय मेर काा आई ओर आवेगी। मैं-(ताज्जुब से ) मुझे ता नहीं मालूम कि पिताजी ने तुम्हे भी ऐयारी मिखाई है। मनोरमा-ठीक है तू उन दिनों बहुत नादान थी इसलिए आज बवाते तुझे याद नहीं है पर मरा मतलब यही है कि मैं कुछ ऐयारी जानती हूँ और इस समय तर वाप का छुड़ा भी सकती हूँ। मनोरमा की यह बात ऐसी थी कि मुझे उस पर शक हो सकता था मगर उसकी मीठी-मीठी वालों ने मुझे धाख में डाल दिया और सच तो यों हे कि मरी किस्मत में दुख भोगना वदा था अस्तु मैन कुछ सोचकर यही सवाच दिया कि अच्छा जा उचित समझो सो करा। एयारी ता थाडी सी मुझ भी आ गई और इसका हाल भी मैं तुम्हें कह चुकी हूँ कि चम्पा ने मुझे अपनी चली बना लिया है । मनोरमा-हा ठीक है तो अब सीध काशी ही चलना चाहिए और वहाँ चलन का सरस ज्याद सुभीता डागी पर है इसलिए जहा तक जल्द हो सके गगा किनारे चलना चाहिए वहा काई न कोई डोंगी मिल ही जायगी। म-बहुत अच्छा चलो। उसी समय हम लाग गगा की तरफ रवाना हो गए और उचित समय पर वहा पहुचकर अपने योग्य डांगो किराये पर ली। डोंगी किराए करने में किसी तरह की तकलीफ न हुई क्योंकि वारतव में डोंगी वाल भी उसी दुष्ट मनारमा के नोकर थे मगर उस कम्बख्त ने एसे ढग से यातचीत की कि मुझे किसी तरह का शक न हुआ या यो समझिए कि में अपनी माँ म मिलकर एक तरह पर कुछ निश्चिन्त सी हा रही थी। रास्त ही में मनारमा ने मल्ल्गहों से इस किस्म की बातें भी शुरू कर दी कि काशी पहुचकर तुम्ही लोग हमारे लिए एक छोटा सा मकान भी किराए पर तलाश कर दना इसके बदले में तुम्हें बहुत कुछ इनाम दूंगी। मुख्तसर यह कि हम लोग रात के समय काशी पहुब। मल्लाहों द्वारा मकान का बन्दोबस्त हो गया और हम लाग! न उसमें जाकर डेरा भी डाल दिया। एक दिन उसमें रहने के बाद मनोरमा ने कहा कि बेटी तू इस मकान के अन्दर दवाजा बन्द करके जेठ ता में जाकर मनोरम का हाल दरियाफ्त कर आऊ! अगर मौका मिला तो मैं उसे जान से मार डालूगी और त्व स्वय मनोरमा बन कर उसके मकान असाव और नोकरों पर कब्जा करके तुझे लेने के लिए यहाँ आऊगी उस समय तू मुझे मनारमा की सूरत शक्ल में देखकर ताज्जुब न कीजियो जब मै तेर सामने आकर 'चापगेच शब्द कहू तब समझो जाइया कि यह वास्तव में मेरी माँ है मनोरमा नहीं क्योकि उस समय कई सिपाही और नौकर मुझे मालिक समझकर आज्ञानुसार मेरे साथ होंगे। तेरे बार में में उन लोगों में यही मशहूर करुगी कि यह मेरी रिश्तेदार है इसे मैने गाद लिया है और अपनी लडकी बनाया है। तेरी जरुरत की सब चीजें यहा मौजूद है तुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी। इत्यादि बहुत सी बात समझा बुझाकर मनोरमा मकान के बाहर हा गई और मैंने भीतर से दवाजा बन्द कर लिया मगर जहा तक मेरा ख्याल है वह मुझे अकेला छोडकर न गई होगी बल्कि दो-चार आदमी उस मकान के दर्वाजे पर या इधर उधर हिफाजत के लिए जरूर लगा गई हागी। आफ आह उसने अपनी बातों और तीवों का ऐसा मजबूत जाल बिछाया कि मैं कुछ कह नहीं सकती। मुझे उस पर रत्ती भर भी किसी तरह का शक न हुआ और में पूरा धोखा खा गई। इसक दूसरे दिन वह मनोरमा बनी हुई कईनौकरों को साथ लिए मेर पास पहुची और चापगेच शब्द कह कर मुझे अपना परिचय दिया। में यह समझ कर बहुत प्रसन्न हुई कि मॉ ने मनोरमा को मार लिया अब मरे पिता भी कैद से छूट जायेंगे। अस्तु जिस रथ पर सवार होकर मुझे लेने के लिए आई थी उसी पर मुझे अपने साथ येठाकर वह अपने घर ले गई और उस समय मैं हर तरह से उसके कब्जे में पड़ गई। मनोरमा के घर पहुंचकर मैं उस सच्ची मुहय्यत को खाजने लगी जो मा को अपने बच्चे के साथ होती है मगर मनोरमा में वह बात कहा स आती? फिर भी मुझे इस बात का गुमान न हुआ कि यहा धोखे का जाल बिछा हुआ है जिसमें मैं फस गई है बल्कि मैने यह समझा कि वह मेरे पिता को छुड़ाने की फिक्र में लगी हुई है और इसी से मेरी तरफ ध्यान नहीं देती और वह मुझसे बड़ी-घडी यही बात कहा भी करती कि बेटी, मै तेरे याप को छुडाने की फिक्र में पागल हो रही हूँ। - देवकीनन्दन खत्री समग्र 5२८