पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८३७

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जब तक में उसके घर में बटी कहला कर रही तब तक नता उसने स्नान किया और न अपना शरीर ही दखन का कोई एसा मौका मुझे दिया जिसम मुझ को शक होता कि यह मेरी माँ नहीं बल्कि दूसरी औरत है। और हा मुझे भी वह असली सूरत में रहन नहीं दती थी, चेहरे में कुछ फर्फ डालने के लिए उसने एक तेल बना कर मुझे दे दिया था जिसे दिन में एक या दा दफ मैं नित्य लगा लिया करती थी। इससे केवल मर रग में फर्क पड़ गया था और कुछ नहीं। उसके यहा रहन वाले सभी मरी इज्जत करते और जो कुछ मै कहती उसे तुरन्त ही मान लेते मगर मै उस मकान के हात के बाहर जान का इरादा नहीं कर सकती थी। कभी अगर ऐसा करती तो सभी लोग मानाकरते और राकने का तैयार हो जाते। इसी तरह वहा रहत मुझे कई दिन बीत गए। एक दिन जब मनोरमा रथपर सवार हाकर कहीं बाहर गई थी में समझती हूँ कि मायारानी स मिलने गई होगी. सध्या के समय जब थोडा सा दिन बाकी था मधीर-धीरे बाग में टहल रही थी कि यकायक किसी का फेंका हुआ पाथर का छाटा सा टुकडा मेर सामने आकर गिरा। जब मेने ताज्जुब से उसे देखा तो उसमें वध कागज के एक पुरजे पर मेरी निगाहमडी : मेने झट उठा लिया और पुर्जा खाल कर पदा उसमें यह लिखा हुआ था - अब मुझे निश्चय हो गया कि तू इन्दिरा है अस्तु तुझे हाशियार करे देता हू ओर कहे देता हू कि तू वास्तव में मायारानी को सखी मनारमा के फन्दे में फसी हुई है । यह तेरी मा बन कर तुझे फसा लाई है और राजा गोपालसिह के दारागा की इच्छानुसार अपना काम निकालने के बाद तुझे मार डालेगी। मुझे जो कुछ कहना था कह दिया, अब जैसा तू उचित समझ कर । तुझ धर्म की शपथ हे इस पुर्जे को पढ कर तुरन्त फाड दे। मैने उस पुर्जे को पढ़ने वाद उसी समय टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और घबडाकर चारो तरफ देखने अर्थात उस आदमी को ढूढन लगी जिसने वह पत्थर का टुकडा फेंका था मगर कुछ पता न लगा और न कोई मुझे दिखाई ही पडा। उस पुर्ज के पढन से जो कुछ मेरी हालत हुई भै क्यान नहीं कर कर सकती। उस समय में मनोरमा के विषय में ज्यों- ज्यों पिछली बातों पर ध्यान दने लगी त्यों-त्यों मुझे निश्चय होता गया कि यह वास्तव में मारमा है मेरी माँ नहीं और अब अपने किये पर पछताने और अफसोस करने लगी कि क्यों उस खोह के बाहर पैर रक्षा और आफत में फसी? उसी समय से मेरे रहन-सहन का दग भी बदल गया और मै दूसरी ही फिक्र में पड़ गई। सब से ज्यादे फिक्र मुझे उसी आदमी के पता लगाने की हुई जिसने वह पुर्जा मेरी तरफ फेंका था। मैं उसी समय वहाँ से हट कर मकान में चली गई इस ख्याल से कि जिस आदमी ने मेरी तरफ छह पुर्जा फेंका था और उसे फाड डालने के लिए कमम दी थी वह जरूर मनोरमा से डरता होगा और यह जानने के लिए कि मैंने पुर्जा फाडकर फेंक दिया या नहीं उस जगह जरूर जायगा जहा ( बाग में ) टहलती समय मुझे पुर्जा मिला था। जब मैं छत पर चढकर और छिपकर उस तरफ देखने लगी जहा मुझे वह पुर्जा मिला था तो एक आदमी को धीरे धीर टहल कर उस तरफ जात देखा। जब वह उस ठिकाने पर पहुच गया तब उसनेइधर-उधर दखा ओरसन्नाटा पाकर पुर्जे के टुकड़ों को चुन लिया जो मैंने फेंके थ और उन्हें कमर में छिपा कर उसी तरह धीरे-धीरेहलता हुआ उस मकान की तरफ चलआया जिसकी छत पर स मै ये सारा तमाशा देख रही थी । जब वह मकान के पास पहुंचा तब मेन उसे पहिचान लिया। मनोरमा से बातचीत करते समय में कई दफे उसका नाम 'नानू सुन चुकी थी। इन्दिरा अपना किस्सा यहा तक बयान कर चुकी थी कि कमलिनी नै चोंक कर इन्दिरा से पूछा 'क्या नान लिया नानू इन्दिरा हा उसका नाम नानू था। कमलिनी-वह तो इस लायक नहीं था कि तरे साथ ऐसी नेकी करता और तुझेआने वाली आफत से होशियार कर दता। वह बड़ा ही शैतान और पाजी आदमी था ताज्जुब नहीं के किसी दूसरे ने तरे पास वह पुर्जा फेंका और नानू ने देख लिया हो और उसके साथ दुश्मनी की नीयत से उन टुकडों को बटोरा हो। इन्दिरा-(बात काट कर) यशक ऐसा ही है इस बारे में भी मुझे धोखा हुआ जिसके सबब से मेरी तकलीफ बढ़ गई जैसा कि मै आगे चल कर ययान कलगी। कमलिनी-ठीक है मैं उस कम्बख्त नानू कोखूब जानती हूँ। जव मै मायारानी के यहा रहती थी तब वह मायारानी और मनोरमा कीनाक काबाल हो रहा था और उनकी खेरखाही के पीछे प्राण दिर देता था, मगर अन्त में न मालूम क्या सवय हुआ कि मनोरमा या नागर ही ने उसे फासी देकर मार डाला। इसका संबब मुझे आज तक मालूम न हुआ और नमालूम होने की आशा ही है क्योंकि उन लागो में स इसका सवय कोई भी न यतावेगा। मैं भी उसके हाथ स बहुत चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १९ ८२९