पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८५

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Qayt गुफा के अन्दर से भी वैसी ही आवाज आइ और साथ ही इसक एक सन्यासी बाहर निकल आया जिसने रनबीरसिह की तरफ इशारा करक साधु महाशय से कुछ पूछा । सन्यासी की विचित्र वाली रनवीर की समझ में न आई और उसक जवाब में साधुन भी जा कुछ कहा वह भी वे समझ न सके । इसक याद दोनों को लिए हुए सन्यासी गुफा के अन्दर चला गया और जय तक रात वाकी रही उस गुफा के अन्दर स काई भी न निकला, सदेरा होने पर बल्कि कुछ दिन निकलने पर तीना आदमी गुफा के बाहर आये। मगर इस समय रनबीर सिह की सूरत कुछ विचित्र ही हो रही थी उनका तमाम बदनइतना काला हो गया था कि उनका संगी साथी भी उन्हें नहीं पहिचान सकता था। रनबीरसिह अपने बदन की तरफ देख कर हॅस और बाल बूटी ता लाल थी परन्तु उसके रस ने मुझे बिलकुल ही काला कर दिया।" सन्यासी-धूप लगन पर यह रग और भी काला और चमकीला होगा और महीने भर तक इसमें किसी तरह की कमी न होगा, इसक अन्दर तुम्हारा काम न हुआ तो एक दफ फिर उसी बूटी का रस लगाना । रनयोर-बहुत अच्छा सन्यासी- उस बूटी को तुमने बखूबी पहिचान लिया है न? रनवीर-जी हा मे बयूपी पहिचान गया। सन्यासी इस पहाडी म यह यूटी बहुतायत से मिलेगी। अच्छा अब वहाँ जाने का रास्ता तुम्हें समझा देना उचित है (इशारा कर के) तुम इस नरम जाआ थाडी थाडी दूर पर स्याह पत्थर की छोटी छोटी ढेरिया तुम्हें मिलेंगी, उन्हें बाई तरफ रखत चले जाना अथात उन हेरियों के दाहिनी पगडण्डी पर बरावर चल जाना और वहां का हाल तो तुम्हें अच्छी जर मझा ही बुक है । और कुछ पूछना है या सब बातें ध्यान में अच्छी तरह आ गई? नवीर--अब कुछ नहीं पूछना है सर बात में अच्छी तरह समझ गया । इसके बाद साधु और सन्यासी से रनवीरसिह विदा हुए और पश्चिम तरफ चल निकले। इस समय सूरत शकल के साथ हो साथ रनवीरसिह की धौशाफ भी बदली हुई थी। वह फकीरी के वेश में थे और हाथ में एक लकडी क सिवाय छोटी सी कटार नी कमर म छिपाय हुए थे। दा सो फैदम जाकर एक स्याह पत्थर की ढेरी नजर आई जिसक दाहिनी तरफ पगडण्डी थी। रनवीरसिह उसी पगडण्डी पर चलने लगे और इसी तरह स्याह पत्थर की ढेरियों का अपना निशान मान कर दो पहर दिन चढ़ तक एक चश्मे क किनारे पहुच जिसके दोनों तरफ सायेदार और घने पेड लगे हुए थे। रनवारसिह ने पीछे फिर कर दखा तो बहुत ऊंचा पहाड दिखाई दिया क्योकि अभी तक वे बराबर नीचे अर्थात ढाल की तरफा ही उतरत चल गय थे। सामने और दाहिनी तरफ भी ऊचा पहाड था मगर बाईं तरफ जहाँ तक निमाह काम करती यो वरावर जमीन और धना जगल दिखाई देता था और यह चश्मा भी उसी तरफ दह कर गया था। रनवीरसिह को सफर की थकावट और भूख ने आगे चलन न दिया इस लिये थोडी देर तक आराम करना उन्हें उचित जान पडा। पास ही क पड़ों में स जगली फल जा वहाँ बहुतायत से लग हुए थे ताड कर खाये और चश्मे के यानी से प्यास बुझा कर पत्थर की एक चट्टान पर लेट रह जा चश्मे के किनारे ही सायदार पेड़ों के नीचे थी। जगली पेड़ों से छनी हुइ निराग और ढढी ठढी हवा लगन स उन्हें नींद आ गई और वे ऐसा येखबर सोये कि सूर्यास्त तक उठने की नौबत न आई। सन्ध्या होते होते दस पन्दह सिपाही एक पालकी का घरे हुए वहाँ आ पहुचे और दम लेने के लिए उसी चश्मे के किनार थोडी दूर तक दहर गए। उन लोगों की आवाज से रनवीरसिह की नींद उचट गई। वे घबरा कर उठ बैठे और आसमान की तरफ देख कर अफसोस करने लग क्योंकि शाम होने के पहिले ही उन्हें उस जगह पहुच जाना चाहिय था, जही य जा रहे थे। यद्यपि वह जगह अब बहुत दूर न था परन्तु रात के समय उन निशानों का पाना बहुत ही मुश्किल या जिनके सहारे व चश्मे के आगे बढ़कर अपने नियत स्थान पर पहुँचत । थाडो देर तक चिन्ता करने के बाद रनवीरसिह उठ खडे हुए और यह जानने के लिये पालकी की तरफ बढे कि उसके अन्दर कौन है और इतने सिपाही उस पालकी का घेर कर क्यों और कहा चले जाते है। इस विचार के साथ ही रनवीरसिह का यह भी शक हुआ कि इन सिपाहियों को हमने कहीं दखा है या इनकी चाल ढाल से जानकार अवश्य हैं। आखिर दिल ने गवाही दी और बता दिया कि वेशक ये सब बालेसिह के सिपाही हैं। कुसुम कुमारी १०९३