पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८६०

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exi Ja सध्या होने तक भूतनाथ इधर-उधर जगल में घूमता रहा और जय अधेरा हो गया तब उस खोह के मुहाने पर पहुंच कर चारों तरफ देखने लगा। यह स्थान एक घने और भयानक जगल में था। छोटे से पहाड के निचले हिस्से में दो-तीन आदमियों के बैठने लायक एक गुफा थी और आगे से पत्थरों के बडे-बड़े ढोकों ने उनका रास्ता रोक रक्खा था। उसके नीचे की तरफ पानी का एक छोटा सा नाला वहता था जिसमें इस समय कम मगर साफ पानी बह रहा था और उस नाल के दोनो तरफ भी पेड़ों की बहुतायत थी। भूतनाथ ने सन्नाटा पाकर उस गुफा के अन्दर पैर रक्खा ओर सुरग की तरह रास्ता पाकर टटोलता हुआ थोडी देर तक बेखटके चला गया। आगे जाफर जब रास्ता खराव मालूम हुआ तब उसने बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई और चारो तरफ देखने लगा। सामने का रास्ता बिलकुल चन्द पाया अर्थात सामने की तरफ पत्थर की दीवार थी जो एक चबूतरे की तरह मालूम पडती थी मगर वहाँ की छत इतनी ऊँची जरूर थी कि आदमी उस चबूतरे के ऊपर चढकर बखूबी खडा हो सकता था, अस्तु भूतनाथ उस चबूतरे के ऊपर चढ गया और जय आगे की तरफ देखा तो नीचे उतरने के लिए सीढियों नजर आई। भूतनाथ सीढियों की राह नीचे उतर गया और अन्त में उसने एक छोटे से दर्वाजे का निशान देखा जिसमें किवाड पल्ले इत्यादि की कोई जगह न थी केवल बॉए-दाहिने और नीचे की तरफ चौखट का निशान था। दर्वाजे के अन्दर पैर रखने बाद सुरग की तरह रास्ता दिखाई दिया जिसे गौर से अच्छी तरह देखने बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और टटोलता हुआ आगे की तरफ बढा। थाडी दूर जाने के बाद सुरग खतम हुई ओर रोशनी दिखाई दी। यह हल्की और नाम मात्र की रोशनी किसी चिराग या मशाल की न थी बल्कि आसमान पर चमकते हुए तारों की थी क्योंकि वहाँ से आसमान तथा सामने की तरफ मैदान का एक छोटा सा टुकडा दिखाई दे रहा था। यह मैदान आठ या दस बिगह से ज्यादे न होगा। बीच में एक छोटा सा बेंगला था, उसके आगे वाले दालान में कई आदमी बैठे हुए दिखाई देते थे तथा चारों तरफ बडे-बडे जंगली पेडों की भी कमी न थी। सन्नाटा देखकर भूतनाथ सुरग के पार निकल गया और एक पेड़ की आड देकर इस ख्याल से खड़ा हो गया कि मौका मिलने पर आगे की तरफ बढेगे। थोड़ी ही देर में भूतनाथ को मालूम हो गया कि उसके पास ही एक पेड की आड़ में कोई दूसरा आदमी भी खडा है। यह दूसरा आदमी वास्तव में देवीसिह थे जो भूतनाथ के पीछे ही पीछे थोडी देर बाद यहाँ आकर पेड की आड़ में खडे हो गये थे और वह भी सूरत बदलने के बाद अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे इसलिए एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था। थोड़ी ही देर बाद दो औरतें अपने अपने हाथों में चिराग लिए बॅगले के अन्दर से निकली और उसी तरफ रवाना हुई जिधर पेड की आड में भूतनाथ और देवीसिह खड़े हुए थे। एक तो भूतनाथ और देवीसिह का दिल इस खयाल से खुटके में था ही कि मेरे पास ही एक पेड की आड मे कोई दूसरा भी खड़ा है, दूसरे इन दो औरतों को अपनी तरफ आते देख और भी घबड़ाये, मगर कर ही क्या सकते थे, क्योंकि इस समय जो कुछ ताज्जुब की बात उन दोनों ने देखी उसे देख कर भी चुप रह जाना उन दोनों की सामर्थ्य से बाहर था अर्थात् कुछ पास आने पर मालूम हो गया कि उन दोनों की औरतों में से एक तो भूतनाथ की स्त्री है जिसे वह लामाधाटी में छोड आया था और दूसरी चम्पा ! भूतनाथ आगे बढ़ा ही चाहता था कि पीछे से कई आदमियों ने आकर उसे पकड़ लिया और उसी की तरह देवीसिह भी बेकाबू कर दिये गये।

  • उन्नीसवा भाग समाप्त

देवकीनन्दन खत्री समग्र ८५२