पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८९

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दि कई कैदखाने और तहखाने भी बने हुए थे जिनका कुछ कुछ हाल आग चल कर मालूम होगा। रनबीरसिह ने सत्कार पाने स्नान ध्यान पूजा पाठ करने और मकान को अच्छी तरह देखने में वह समूचा दिन बिता दिया और सन्ध्या होते ही हुक्म दे दिया कि जब तक मै न बुलाक कोई मेरे पास न आवे । महात्मा रनबीरसिह को जो स्थान रहन के लिये दिया गया था उसके सामने ही एक छोटा सा मन्दिर था जिसमें माँ अत्रपूर्णा की मूर्ति स्थापित थी और एक बुढिया औरत के सुपुर्द वहाँ का विलकुल काम था। रात आधी बीत गई चारो तरफ सन्नाटा छा गया, उस मकान के अन्दर रहने वाले स्त्री पुरुष अपने अपने स्थान पर सो रहे होंगे मगर रनवीरसिह की आँखों में नींद नहीं। वह उत्त मृगछाला पर से उठे जो उन्हें विछाने के लिये दिया गया था और चुपचाप अन्नपूर्णाजी के मन्दिर की तरफ चले। जब उस छोटे से समा-मण्डप में पहुंचे तो एक चटाई पर उस बुढिया पुजारिन को सोते हुए पाया। रनबीरसिह ने उसे उठाया। वह चौक कर उठ खडी हुई और अपने सामने रनबीरसिह को देख कर ताज्जुब करने लगी क्योंकि बुढिया रनवीरसिह की फकीरी इज्जत को अच्छी तरह जानती थी. दिन भर में जो खातिरदारी उनकी की गई थी उसे भी अच्छी तरह देख चुकी थी. और उसे मालूम था कि ये उन विकट मनुष्यों के गुरु हैं जो इस मकान में रहते हैं। रनवीरसिह ने अपने कमर में से एक चिट्ठी निकाली और बुढिया के हाथ में देकर कहा, "मैं खूब जानता हू कि तू पढी लिखी है अस्तु इस चिट्ठी को बहुत जल्दबाचल और इसके बाद जला कर राख कर दे।' बुढिया ने ताज्जुब के साथ वह चिट्ठी ले ली और पढ़ने के लिये उस चिरण के पास गई जो मन्दिर के एक कोने में जल रहा था। उसने बड़े गौर से चिट्ठी पढ़ी और उसकी लिखावट पर अच्छी तरह ध्यान देने के बाद उसी चिराग में जला कर रनबीरसिह के पास लौट आकर बोली, "नि सन्देह आपने बडा ही साहस किया, परन्तु वह काम बहुत ही कठिन है जिसके लिये आप आये हैं। रनबीर-वशक वह काम बहुत ही कठिन है परन्तु जिस तरह मैं अपनी जान पर खेल कर यहाँ आया ह उसे भी तू जानती ही है। उस चिट्ठी के पढने से तुझे मालूम हुआ होगा कि यहाँ तुझसे ही सहायता पाने की आशा घर में भेजा गया हू! बुढ़िया-येशक और मुझसेजहा तक होगा आपकी सहायता करूगी। आह, आज एक भारी बोझ मेरी छाती पर से हट गया और एक बहुत पुराना भेद मालूम हो गया जिसके जानने की मैं इच्छा रखती थी। खैर जो हागा देखा जायगा, आप दो तीन दिन तक चुपचाप रहें, इस बीच में मैं सव वन्दोवस्त करके आपको इत्तिला दूगी। तब तक आप यहा की तालियों का झव्या किसी तरह अपने कब्जे में कर लीजिये। बस अब यहा से जाइये ऐसा न हो कोई यहाँ आपको देख ले तो क्रेवल काम ही में विघ्न न पड़गा वरन् मेरी आपकी दोनों ही की जान चली जायगी। रनवीर-ठीक है, मै अभी लौट जाता हूँ। रनवीरसिह वहाँ से लौटे और अपनी जगह आकर भृगछाला पर लेट रहे। अट्ठाईसवां बयान रनवीरसिह दो दिन के जागहुए थ इसलिये नींद ने उन्हें अच्छी तरह धर दवाया ऐसा साये कि पहर दिन चढ तक आँख नखुली और उस मकान के रहने वालों में स किसी ने उन्हें न जगाया। आखिर जय आँख खुली तो 'तू ही तो है "कहते हुए उठ बैठे। उस समय बीस पच्चीस आदमी इनके सामने हाथ जोडे खडे थे जिन्हें देखकर रनबीरसिह ने बैठने का इशारा किया और बोले "तुम लोगों को जो कुछ कहना हो कहो !"उन आदमियों में वह नौजवान भी था जिसके पीछे-पीछे इस विचित्र स्थान में रनवीरसिह आये थे और जिससे पहले पहल उस हाते में मुलाकात हुई थी। इस किस्से में जब तक उसकी जरूरत पडेगी हम उसे नौजवान ही के नाम से लिखेंगे जब सब कोई बैठ गये तो नौजवान ने हाथ जोडकर रनवीरसिह से कहा, इस समय गुरु महाराज की जा कुछ आज्ञा हो हम लोग करने को तैयार है। रनवीर-सिवाय इसके और कुछ भी कहना नहीं है कि सत्तगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल कहीं से ला दो। नौजवान-(सिर झुकाकर) जैसी आज्ञा । (अपने साथियों में से एक की तरफ देखकर) तुम जाओ। स्नवीर-इस समय और कोई बात अगर न हो तो तुम लोग जाआ अपना अपना काम करी, मेरे पास व्यर्थ बैठने की कोई जरूरत नहीं। अहा! तू ही तो है ।। नौजवान-हमलोग चाहते है कि आज की कचहरी आपके सामने की जाय और उसमें सब काम आप ही की आज्ञानुसार किया जाए। रनवीरसिह और कुसुमकुमारी के हाथ से दुखी होकर वालेसिह यहाँ आया है और सत्तगुरु की मदद चाहता है अब तक उसकी मदद वरावर की गई है, आगे के लिए जैसी आज्ञा हो। यालेसिह बडा ही नेक ईमानदार और सत्तगुरु का भक्त है। -- कुसुम कुमारी १०९७