पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यही भूतनाथ हेलासिह क यहाँ रघुवरसिह का खत लेकर आया-जाया करताथा सुरेन्द्र-ठीक है मुझे याद है। 'गोपाल-बस ये सब चीठियों उन्हीं चीठियों की नकलें है। भूतनाथ ने मौके पर दुश्मनों को कायल करने के लिए उन चीठियों की नकल कर ली थी और कुछ उनके घर से भी चुराई थीं। बस भूतनाथ की गलती या बेईमानी जो कुछ समझिये यही हुई कि उस समय कुछ नगदी फायदे के लिए उसने इस मामले को दया रक्खा और उसी वक्त मुझ पर प्रकट न कर दिया। रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देना और कलमदान के भेद को छिपा रखना भी मूतनाथ के ऊपर घया लगाता है क्योंकि अगर ऐसा न होता ता मुझे यह बुरा दिन देखना नसीव न होता और इन्हीं भूलों पर आज भूतनाथ पछताता और अफसोस करता है। मगर आखीर में भूतनाथ ने इन बातों का बदला भी ऐसा अदा किया कि वे सब कसूर माफ कर देने के लायक हो गए। सुरेन्द्र-उम कलमदान में क्या चीज थी? गोपाल-उस कलमदान को दारोगा की उस गुप्त सभा का दफ्तर समझिए। उन सभासदों के नाम और सभा के मुख-मुख्यभेद उसी में बन्द रहते थे इसके अतिरिक्त दामोदरसिह ने जो वसीयतनामा इन्दिरा के नाम लिखा था वह भी उसी में बन्द था। सुरेन्द-ठीक है ठीक है इन्दिरा के किस्से मे यह बात भी तुमने लिखी थी. हमें याद आया। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि उन दिनों लालच में पड़ कर भूतनाथ ने बहुत बुरा किया और उसी सबब से तुम लोगों को तकलीफ उठानी पड़ी। एक नकाबपाश-शायद भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि इस लालच का नतीजा कहाँ तक बुरा निकलेगा। सुरेन्द-जो हो मगर उस समय की बातों पर ध्यान देने से यह भी कहना पडता है कि उन दिनों भूतनाथ एक हाथ से भलाई कर रहा था और दूसरे हाथ से बुराई। गोपाल-ठीक है बेशक ऐसी ही बात थी। सुरेन्द्र-(जीतसिह की तरफ देख के भूतनाथ और इन्द्रदेव को मी इसी समय यहां बुला कर इस मामले को तै हो कर देना चाहिये। जो आज्ञा' कहकर जीतसिह उठे और कमरे के बाहर जा कर चोबदार को हुक्म देने के बाद लौट आये इसके बाद कुछ देर तक सन्नाटा रहा तब फिर गोपालसिह ने कहा--- गोपाल-अपने खयाल में तो भूतनाथ ने कोई बुराई नहीं की थी क्योंकि बीस हजार अशर्फी दारोगाम वसूल करके उसे छोड देने पर भी उसने एक इकरारनामा लिखा लिया था कि वह (दारोगा) ऐसे किसी काम में शरीक न होगा और नखुद एसा कोई काम करेगा जिसमें इन्द्रदेव,सयूँ इन्दिरा और मुझ (गोपालसिह) को किसी तरह का नुकसान पहुंचे मगर दारोगा फिर भी बेईमानी कर ही गया और भूतनाथ एकरारनामे के भरोसे बैठा रह गया। इससे खयाल होता है कि शायद भूतनाथ को भी इन मामलों की ठीक खबर न हो अर्थात् मुन्दर का हाल मालूम न हुआ हो और वह लक्ष्मीदेवी के बार में धोखा खा गया हो तो भी ताज्जुब नहीं।

सुरेन्द-हो सकता है। (कुछ देर तक चुप रहने के बाद) मगर यह तो बताओ कि इन सब मामलों की खबर तुम्हें कब और क्योंकर लगी? गोपाल-इन सब बातों का पता मुझे भूतनाथ के गुरूभाई शेरसिह की जुबानी लगा जो भूतनाथ को भाई की तरह प्यार करता है मगर उसकी इन सब लालच मरी कार्रवाइयों के बुरे नतीजे को सोच और उसे पूरा कसूरवार समझकर उससे डरता और नफरत करता है। जिन दिनों रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिह किशोरी को अपने किले में ले गया था और इस सवव से शेरसिह ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी उन दिनों भूतनाथछिपा-छिपा फिरता था। मगर जब शेरसिह ने उस तिलिस्मी तहखामे में जाकर डेरा डाला और छिप-छिपे कमला और कामिनी की मदद करने लगा तो उन्हीं दिनों तक तिलिस्मी तहखाने में जाकर भूतनाथ ने शेरसिह से एक तौर पर(महुत दिनों तक गायब रहने के बादा नई मुलाकात की, मगर धर्मात्मा शेरसिह को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई गोपालसिह इतना कह ही रहे थे कि भूतनाथ और इन्ददेव कमरे के अन्दर आ पहुंचे और सलाम करके आज्ञानुसार जीतसिह के पास बैठ गये। 'इन्दिरा का किस्सा चन्द्रकान्ता सन्तति पन्द्रहवाँ भाग पहिला बयान।

  • देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति तीसरा भाग तेरहवॉ बयान ।

चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१