पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६ ch भूत-जी व सब चीठियाँ हैं तो मेरे ही हाथ की लिखी हुई मगर वे असल नहीं बल्कि असली चीठियों की नकल है जो कि मैने जैपाल (रघुबरसिह) के यहाँ से चोरी की थी। असल में इन चीठियों का लिखने वाला मैं नहीं बल्कि जैपाल है। जीतसिह-खैर तो जब तुमने जैपाल के यहाँ से असल चीठियों की नकल की थी तो तुम्हें उसी समय मालूम हुआ होगा कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिह पर क्या आफत आने वाली है? भूत क्यों न मालूम होता ! परन्तुरूपये की लालच में पड़कर अर्थात् कुछ लेकर मैने जैपाल को छाड दिया। मगर बलभद्रसिह से मैंने इस होनहार के बारे में इशारा जरूर कर दिया था हाँ जैपाल का नाम नहीं बताया क्योंकि उससे रूपया वसूल कर चुका था। हाँ और यह कहना तो मैं भूल ही गया कि रूपये वसूल करने के साथ ही मैंने जैपाल से इस यात की कसम भी खिला ली थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस उसन (जैपाल ने मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया और वह काम कर गुजरा जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे बलमदसिह के बारे में भी धोखा हुआ! दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझ हर तरह से विश्वास दिला दिया कि चल मद्रसिह मर गए। लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की उसका मुझे कुछ भी पता न लगा और न मै कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका। पहिचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा भी तो मुझ किसी तरह का शक न हुआ क्योंकि लडकपन की सूरत और अधेडपन की सूरत में बहुत बडा फर्क पड जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मैने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा था उस समय उनकी दोनों बहिर्ने अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ रहती थी जब वे ही दोनों उसकी बहिन होकर धोखे में पड़ गई तो मेरी कौन गिनती है? बहुत दिनों के बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहाँ से चोरी हो गया तब मै घवडाया और डरा कि समय पर वह चोरी गया हुआ मुटठा मुझी का मुजरिम बना दगा और आखिर ऐसा ही हुआ। दुष्टों ने यही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलमदसिह को दिखा कर मेरी तरफ से उनका दिल फेर दिया और तमाम दोष मेरे ही सर पर थोपा। इसके बाद और भी कई वर्ष बीत जाने पर जब राजा गोपालसिह के मरने की खबर उडी और किसी को किसी तरह का शक न रहा तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा और जैपाल की शैतानी का कुछ पता लगा मगर फिर मैने जान बूझ कर तरह दे दिया और सोचा कि अब उन बातों को खोदने से काई फायदा ही क्या जव कि खुद राजा गोपालसिह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेडों का उठाऊँ?(हाथ जोडकर ) वेशक यही मेरा कसूर है और इसीलिए मेरा माईभी रज है। हाँ इधर जव कि मैंने देखा कि अब श्रीमान् राजा वीरेन्द्रसिंह का दौरदौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई तब मैंने भी सर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आई मेरे मालिक रणधीरसिह भी मुझसे बिगड गये और मैं अपना काला मुँह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने का मरा हुआ मशहूर कर दिया इत्यादि कहाँ तक क्यान क बात तो यह है कि मैं सर से पैर तक अपने को कसूरवार समझ कर भी महाराजा की शरण में आया हूँ। जीत-तुन्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है उस जमाने में इन्दिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयाँ तुमने की थी उनसे महाराज प्रसन्न है,खास करके इसलिए कि तुम्हार हर एक काम में दवगता का हिस्सा ज्यादे था और तुम सच्चे दिल से इन्द्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे मगर इस जगह एक बात का बडा ताज्जुब है। भूत-वह क्या? जीत-इन्दिरा के बारे में जो जो काम तुमने किये थे वे इन्द्रदेव से तो तुमने जरूर ही कहे होगे? भूत-येशक जो कुछ काम मैं करता था वह इन्द्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था। जीत-तो फिर इन्ददेव ने दारोगा को क्यों छोड दिया? सजा देना तो दूर रहा इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोडा। भूत-(एक लम्बी साँस लेकर और उँगली से इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके ऐसा भी यहादुर और मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा। इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था उसका बदला एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था और जिससे मैं जन्म भर इनके सामने सर उठाने लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा तो सुनते ही इनकी आँखों में आँसू भर आये और एक लम्बी सॉस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, 'भूतनाथ तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा!खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया. तुम मेरे दास्त हो,अस्तु जो कुछ तुम कर आये उसे मैं भी मजूर करता हूँ और दारोगा को एक दम भूल जाता हूँ। अब मेरी लडकी चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१