पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९२९

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हुआ हे तर स मेरे युजुर्ग लोग इसके दारोगा होते आये है। अब मेर जमान में इस तिलिस्म की किस्मत ने पलटा खाया है। यद्यपि कुमार इन्दजीतसिह ओर आनन्दसिह ने इस तिलिस्म का ताडा या फतह किया है और इसमें की बेहिसाब दौलत के मालिक हुए है तथापि यह तिलिस्म अभी दौलत स खाली नहीं हुआ है और न ऐसा खुल ही गया है कि एरे गरे जिसका जी चाहे इसमें घुस आय। हॉ यदि आज्ञा हा तो दानों कुमारों के हाथ से में इसके बचे बचाय हिस्से को भी तोडवा सक्ता हूँ क्योंकि यह काम इस तिलिस्म के दारागा का अर्थात् मेरा है मगर मैं चाहता हूँ कि बड़े लोगों की इस कीर्ति को एकदम स मटियामट न करक भविष्य के लिए भी कुछ छाड दना चाहिए। आज्ञा पाने पर में इस तिलिस्म की पूरी सैर कराऊगा और तब अर्ज करूंगा कि बुजुर्गों की आज्ञानुसार इस दास ने भी जहाँ तक हा सका इस तिलिस्म की खिदमत की, अब महाराज का अख्तियार है कि मुझस हिस्सर-किताब समझकर आइन्द के लिए जिसे चाहे यहों का दारोगा मुकर्रर करें। महाराज-इन्द्रदेव में तुमसे और तुम्हार कामों से बहुत ही प्रसन्न हूँ मगर मैं यह नहीं चाहता कि तुम मुझे याता के जाल में फंसकर बवकूफ बनाओ और यह फहा कि भविष्य क लिए किसी दूसर को यहाँ का दारोगा मुकर्रर कर लो। जो कुछ तुमन राय दी है वह बहुत टीक है अर्थात् इस तिलिस्म के वर्च उचाए स्थानों को छाड देना चाहिए जिसमें बड लोगों का नाम निशान बना रहे मगर यहाँ के दारोगा की पदवी सिवाय तुम्हार यान्दान के काइदूसरा कर पा सकता है? वम् दया करक इस डग जो बातों को छाड दा और जो कुछ खुशी-खुशी कर रहे हो करो ! इन्द-( अदब के साथ सलाम करके ) जो आज्ञा ! मैं एक बात आर भी निवदन किया चाहता हू । महाराज-वह क्या? इन्द्रदेव-वह यह कि इस जगह से आप कृपा करके पहिले गरे स्थान को, जहा में रहता हूँ, पवित्र कीजिए और तब तिलिस्न की सैर करत हुए अपन चुनारद वाले तिलिस्मी मलान में पहुँचथे। इसके अतिरिक्त इस तिलिस्म के अन्दर जो कुँअर इन्द्रजीततिह और आनन्दसिह ने पाया है अथवा वहा से जिन चीजों को निकाल कर चुनारगढ पहुँचाने की आवश्यकता है उनकी फिहरिस्त मुझे मिल जाय और ठीक तौर पर बता दिया जाय कि कौन चीज कहाँ पर है तो उन्हें वहाँ से बाहर करके आपक पास भेजने का बन्दोबस्त क्ल। यद्यपि यह काम भैरोसिह और तारासिंह भी कर सकते है परन्तु जिस काम को में एक दिन में कतगा उसे वे चार दिन म भी पूरा न कर सकेंगे क्याकि मुझे यहाँ के कई रास्ते मालूम है तिस चीज का जिस राह स निकाल ले जाने में सुनीता दलूंगा निकाल ल जाऊँगा। महाराज-ठीक है मै भी इस बात का पसन्द करता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि चुनार पहुंचन के पहिल ही तुम्हारे विचित्र स्थान की सेर कर लूं। थोजों की फिहरिस्त और उनका पता इन्दजीतसिह तुमका देग! इतना कह के महाराज न इन्द्रजीतसिह की तरफ देखा और कुमार ने उन सब चीजों का पत्ता इन्द्रदेव का बताया जिन्हें बाहर निकालकर घर पहुँचाने की आवश्यकता थी और साथ ही साथ अपना तिलिस्मी किस्ता भी जिसके कहने की जरूरत थी इन्द्रदव से क्यान किया और बाद में दूसरी बातों का सिलसिला छिडा । बीरेन्द्र (इन्द्रदवस) आपो कहा था कि मैं कई तमाशे भी साथ लाया हूँ ता क्या व तमाशे ढके ही रह जायेंगे। इन्द्रदेव जी नहीं आज्ञा हो तो अभी उन्हें पश करूं परन्तु यदि आप मरे मकान पर चलकर उन तमाशों का देखें। ना कुछ विशेष आनन्द मिलगा। महाराज-यही सही हम लोग तो अभी तुम्हारे मकान पर चलने के लिए तैयार है। इन्ददव अब रात बहुत चली गई है.महाराज दो चार घण्टे आराम कर लें, दिन भर की हरारतं मिट जाय जब कुछ रात बाकी रह जायेगी तो मैं जगादूंगा और अपन मकान की तरफ ले चलूँगा। तक मैं अपने साथियों को वहॉ रवाना कर दता हूँ जिसमें आचलकर सभों का होशियार कर दें और महाराज के लिए हर एक तरह का सामान दुरुस्त हो जाय। इन्द्रदेव की बात का महाराज ने पसन्द करक सभों को आराम करने की आज्ञा दी और इन्द्रदेव भी वहाँ स बिदा होकर किसी दूसरी जगह चला गया । इधर-उधर की बातचीत करत-करतेमहाराज को नींद आ गइ वीरेन्द्रसिह दानों कुमार और राजा गापालसिह भी सा गये तथा और ऐयारों ने भी स्वप्न देखना आरम्भ किया मगर भृतनाथ की आँखों में नींद का नाम निशान भी न था और वह तमाम रात जागता ही रह गया। जब गत घन्टे भर से कुछ ज्यादे याकी रह गई और सुबह का अठखेलियों के साथ चलकर खुशदिलों तथा नोजवानों के दिलों में गुदगुदी पैदा करने वाली ठडो ठडी हवा ने खूशबूदार जगली फूला और लताओं से हाथापाही करके उनकी सम्पत्ति छीनना और अपन को खुशबूदार बनाना शुरु कर दिया तब इन्द्रदेव भी उस वारहदरी में आ पहुंचा और सभों को गहरी नींद में सातदख जगान का उद्योग करने लगा। इस बारहदरी क आगे की तरफ एक छोटा सा सहन था चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१ ९२३