पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९३६

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दि इसे किसी रियासत में नोकर रख दना चाहिए तव इसकी एयारी खुलेगी। मुख्तमर यह कि बस्यारीजी की ही बदौलत में गदाधरसिह के नाम से रणधीरसिंहजी के यहाँ और शरसिह महाराज दिग्विजयसिह के यहाँ नाकर हो गय और यह जाहिर किया गया कि शररिह आर गदाधरसिंह दोनों नाई है और हम दाना आगुस में प्रग भी ऐसा ही रखत्त थे, उन दिनों रणधीरसिह की जमीदारी में तरह-तरह के उत्णत मच हुए ५ और बहुत से आदमी उनके जानी दुश्मन हो रहे थे। उनके आपुस वालो को तो इस बात का विश्वास हा गया था अब रणधीरासहजी की जान किसी तरह नहीं क्य सकती क्योंकि उन्हीं दिना उनका ऐयार श्रीसिह दुश्मनों के हाथों स मारा जा चुका था और खूनी का कुछ पता नहीं लगता था। काई दूसरा एवार भी उनके पास न था इसलिय व वड ही तरदुद में पड हुए थे पद्यपि उन दिनों उनफ यहाँ नौकरी करना अपनी जान खतरे में डालना था मगर मुझे झन बाता की कुछ भी परवाह न हुई। रणधीरसिहजी भी मुझे नोकर रख कर बहुत प्रसन्न हुए। नरी खातिरदारी में कभी किसी तरह की कमी नहीं करते थे। इसका दो सबस था. एक तो उन दिनों उन्हें एयार की सख्त जरूरत थी दूसर मेरे पिता से और उस कुछ मित्रता भी थी जो कुछ दिन के बाद मुझे मालूम हुआ। रणधीरसिहजी न मरा ब्याह भी शाध ही करा दिया। सम्भव है कि इसमें उनकी कृपा और स्नह के कारण समझू पर यह भी हो सकता है कि मेरे पैर में गृहस्थी की वेडी डानने और कहीं भाग जाने लायक न रयने के लिए उन्होंने ऐसा किया हा क्योंकि अकेला और फिक्र आदमी कहीं पर जन्म भर रहे और काम कर इसका विश्वास लागौ का कम रहता है। खै जो कुछ ही मतलब यह है कि उन्होने मुझे बडी इज्जन और प्यार के साथ अपने यहा रक्खा और मैने भी थाड ही दिनों में ऐस अनूठे काम् कर दिखाए कि उन्हें ताज्जुब हाता था! सच तो या है कि उनक दुश्मना की हिम्मत टूट गई और वे दुश्मनी की आग में आप ही जलने लग। कायदे की बात है कि जब आदमी के हाथ से दो-चार काम छ निकल जाते है और चारा तरफ उसकी तारीफ हाने लगती है तब वह अपन काम की तरफ से वेफिक्र हो जाता है। यही हाल मेरा भी हुआ। आप जानते ही होंगे कि रणधीरसिंहजी का दयाराम नाम एक भतीजा था जिस यह बहुत प्यार करते थे और वही उनका वारिस होन वाला था। उसके मॉ-बाप लडकाधन ही में मर चुके थे मगर चाचा की मुहष्यत के सबब उसे भी बाप के भरने का दु ख मालूम न हुआ। वह ( दयाराम } उम्र में मुझस कुछ छोटा था मगर मेर और उसका बीच में हद दर्जे की दोस्ती ओर मुहब्बत हो गई थी। जब हम दानों आदमी घर पर मौजूद रहते ता विना मिले जी नहीं मानता था। दयाराम का उठना वेदना मेरे यहा ज्याद होता था अक्सर रात का मेरे यहाख-पीकर सा जाता था और उसके घर वाले भी इसमें फिसी तरह का रज नहीं मानते था जो मकान मुझ रहने के लिए मिला था वह निहायत उम्दा ओर शानदार था। उसके पीछे की तरफ एक छाटा सा नजरबाग था जो दयाराम के शौक की बदौलत हरदम हरा-भरा गुजान और सुहावना बना रहता था। प्राय सध्या के समय हम दानों उसी बाग में वेट कर भाग-यूटी छानत ओर मन्ध्यापासन स निवृत्त हो बहुत रात गय तक गप-शप किया करता जठ का महीना था और गर्मी हद दर्जे की पड रही थी। पहर रात बीत जान पर हम दोनों दात्त उसी नजरयाग में दो चारपाई क ऊपर लेटे हुए आपुस म धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। मेरा खूबसूरत और प्यारा कुत्ता मेरे पायताने की तरफ एक पत्थर की चौकी पर बैठा हुआ था। वान करते-करते हम दोनो का नींद आ गई। आधी रात से कुछ ज्यादे बीती होगी जब मेरी आँख कुत्ते के भाकन की आवाज से खुल गई। मैंने उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया और करवट बदल कर फिर आखे बन्द कर ली क्योंकि वह कुत्ता मुझसे बहुत दूर और नजरबाग के पिछले हिस्स की तरफ था मगर कुछ ही देर याद वह मेरी चारपाई के पास आकर भौंकन लगा और पुन मेरी आख खुल गई। मैंने कुत्ते का अपन सामने बचैनी की हालत में देखा उस समय वह जुमान निकालने हुएजोर-जोर से हाफ रहा और दाना अगले पैरों से जमीन खोद रहा था। में अपने कुत्ते की आदतों को खूब जानता और समझता था अस्तु उसकी ऐसी व्यवस्था देखकर मेरे दिल में खुटझा हुआ और मैं घबडाकर उठ बैठा। अपो मित्र को भी उठाकर होशियार कर देने की नीयत से मैने उसकी चारपाई की तरफ देखा मगर चारपाई खाली पाकर मै बचनी के साथ चारो तरफ देखन लगा और उठकर चारपाई के नीचे खडे होने के साथ ही मैन अपने सिरहाने के नीच से खजार निकाल लिया। उस समय मेरा नमकहलाल कुता मेरी धोती पकड कर बार-बार खेचने और बाग के पिछले हिस्से की तरफ चलने का इशारा करन लगा और जब मै उसके इशारे के मुताबिक चला दा वह धोती छोड कर आगे-आगे दौडने लगा। कदम बढाता हुआ मैं उसके पीछे-पीछे चला। उस समय मालूम हुआ कि मरा कुत्ता जख्मी है उसके पिछले पैर में चोट आई है इसलिए वह पैर उठाकर दौडता था। देवकीनन्दन खत्री समग्र