पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दि मेरी बात सुनते ही भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। इसके बाद उसके दोनों साथी तो न मालूम क्या सोचकर एकदम भाग खडे हुए मगर भूतनाथ बडी बेचैनी से दयाराम के पास बैठ कर उनका मुह देखने लगा। उस समय भूतनाथ के दखत ही देखते उन्होंने आखिरी हिचकी ली ओर दम तोड़ दिया। भूतनाथ उनकी लाश के साथ चिमट कर रोन लगा और वडी देर तकराता रहा। तब तक हम तीनों आदमी पुन मुकाबिला करने लायक हो गये और इस बात से हम लोगों का साहस और भी बढ गया कि भूतनाथ के दोनों साथी उसे अकेलो छाड कर भाग गये थे। मैन मुश्किल से भूतनाथ को अलग किया और कहा अब रोने और नखरा करने से फायदा ही क्या होगा उनके साथ एसी ही मुहब्बत थी तो उन पर वार न करना था, अब उन्हें मारकर ओरतों की तरह नखरा करन बैठे हो? इतना सुनकर भूतनाथ ने अपनी आँखें पोछी और मेरी तरफ देख के कहा क्या मैन जान बुझकर इन्हें मार डाला है? मै-बेशक ! क्या राहा आने के साथ ही तुमन उन्हें चारपाई पर पडे हुए नहीं देखा था? भूत-देखा था मगर मैं नहीं जानता था कि ये दयाराम है। इतने माटे-ताजे आदमी को यकायक दुबला-पतला देखकर में कैसे पहिचान सकता था? में-क्या खूब ऐसे ही तो तुम अन्धे थे? खैर इसका इन्साफ तो रणधीरसिह के सामने ही होगा, इस समय तुम हमसे फैसला कर लो क्योंकि अभी तक तुम्हारे दिल में लडाई का हौसला जरूर बना होगा। भूत-( अपने को सभालकर और मुह पोछकर) नहीं-नहीं मुझे अव लडने का हौसला नहीं है, जिसके वास्त में लडता था जब वहीं नहीं रहा तो अब क्या? मुझे ठीक पता लग चुका था कि दयाराम तुम्हारे फेर में पड़े हुए हैं और सो अपनी आखों से देख भी लिया मगर अफसोस है कि मैने पहिचाना नहीं और य इस तरह धोखें में मारे गये, लेकिन इसका कसूर भी तुम्हारे ही सिर लग सकता है। मैं-खैर अगर तुम्हारे किए हो सके तो तुम विल्कुल कसूर मेर ही सिर थोप देना, मै अपनी सफाई आप कर लूगा मगर इतना समझ रक्खो कि लाख कोशिश करने पर भी तुम अपने को बचा नहीं सकते क्योंकि मैने इन्हें खोज निकालने में जो कुछ मेहनत की थी वह इन्द्रदेवजी के कहने से की थी न ता में अपनी प्रशसा कराना चाहता था और न इनाम ही लेना चाहता था जरूरत पड़ने पर में इन्द्रदेव की गवाही दिला सकता हूँ और तुम अपने का बेकसूर सावित करन के लिए नागर को पेश कर देना जिसके कहने और सिखाने में तुमन मरे साथ दुश्मनी पैदा कर ली। इतना सुनकर भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। सिर झुकाकर दर तक साचता रहा और इसके बाद लम्पी सास लेकर उसने मेरी तरफ देखा और कहा बेशक मुझे नांगर कम्बख्त ने धोखा दिया । अब मुझे भी इन्हीं के साथ मर मिटना चाहिए । इतना कहकर भूतनाथ ने खजर हाथ में ले लिया मगर कुछ न कर सका अर्थात् अपनी जान न दे सका। महाराज जवामर्दो का कहना बहुत ठीक है कि यहादुरों को अपनी जान प्यारी नहीं होती। वास्तव में जिसे अपनी जान प्यारी होती हे वह कोई हौसले का काम नहीं कर सकता और जा अपनी जान हथेली पर लिए रहता है और समझता ह कि दुनिया में मरना एक बार ही हे कोई वार-यार नहीं मरत! वही सब कुछ कर सकता है। भूतनाथ के बहादुर होने में सन्देह नहीं परन्तु इस अपनी जान प्यारी जरूर थी और इस उल्टी बात का सबब यही था कि यह रेयाशी के नशे में चूर था। जो आदमी एयाश होता है उसमें ऐयाशी के सबब कई तरह की बुराइया आ जाती है और बुराइयों की बुनियाद जम जाने के कारण ही उस अपनी जान प्यारी हो जाती है तथा वह कोई भारी काम नहीं कर सकता। यही सबब था कि उस समय भूतनाथ जान न द सका बल्कि उसकी हिफाजत करन का ढगजमान लगा नहीं तो उस समय मौका ऐसा ही था इससे जैसी भूल हो गई थी उसका बदला तभी पूरा होता जब यह भी उसी जगह अपनी जान दे देता और उस मकान से तीना लार्श एक साथ ही निकाली जाती। भूतनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद मुझसे कहा- 'मुझे इस समय अपनी जान भारी हो रही है और मैं मर जाने के लिए तैयार हू मगर मैं देखता हू कि ऐसा करने स भी किसी को फायदा नहीं पहुचेगा। मैं जिसका नमक खा चुका हू और खाता हू उसका और भी नुकसान होगा क्योंकि इस समय वह दुश्मनों से घिरा हुआ है। अगर मै जीता रहूगा तो उनके दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर उन्हें वेफिक्र कर सकूगा अतएव मै माफी मागता है कि तुम मेहरबानी कर मुझे सिर्फ दो साल के लिए जीता छाड दो। मै-दो वर्ष के लिए क्या जिन्दगी भर के लिए तुम्हें छोड़ देता है, जब तुम मुझस लडना नहीं चाहते तो मै क्यों तुम्हें मारने लगा? बाकी रही यह बात कि तुमने खामखाह मुझसे दुश्मनी पैदा कर ली है सो उसका नतीजा तुम्हें आप से आप मिल जायगा जब लोगों को यह मालूम होगा कि भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया । भूत-नहीं-नहीं भेरा मतलब तुम्हारी पहिली बात से नहीं है बल्कि दूसरी यात से है अर्थात अगर तुम चाहोगे तो लोगों देवकीनन्दन खत्री समग्र