पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९५८

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भूल-अच्छा मुझे भी वह दर्खास्त दिखाइयगा। इन्द-(उगली से इशारा करके ) वह कारनिस के ऊपर पड़ी हुई है देख लीजिये। भूतनाथ ने दर्खास्त उतार कर पढी और इसके बाद कुछ देर तक उन दोनों में बातचीत होती रही। नौवां बयान सुबह का सुहावना समय सब जगह एक सा नहीं मालून होता घर की खिडकियों उसका चेहरा कुछ और ही दिखाई देता है और बाग में उसकी कैफियत कुछ और ही मस्तानी होती है पहाड में उसकी खूबी कुछ और ही ढग की दिखाई दती है और जगल में इसकी छटा कुछ निराली ही होती है। आज इन्द्रदेव के इस अनूठे स्थान में इसकी खूची सबसे चढी बढी है क्योंकि यहाँ जगल भी हैं पहाड भी अनूठा याग तथा सुन्दर बगला या कोठी भी है, फिर यहाँ के आनन्द का पूछना ही क्या इसलिए हमारे महाराज कुअर साहव और ऐयार लोग भी यहाँ घूम घूम कर सुबह के सुहावने समय का पूरा आनन्द ले रहे हैं खास करके इसलिए कि आज य लोग डेरा कूच करने वाले हैं। बहुत दर घूमने फिरने के बाद सब काई बाग में आकर बैठ और इधर उधर की बाते हाने लगी। जीत-(इन्द्रदेव से ) भरथसिह वगैरह तथा औरतों को आपने चुनार रवाना कर दिया । इन्द्रदेव-जी हाँ बड़े सवरे ही उन लागों को बाहर की राह से रवाना कर दिया । औरतों के लिए सवारी का इन्तजाम कर दने के अतिरिक्त अपन दस पन्द्रह मातविर आदी भी साथ कर दिये हैं। जीत-ता अव हम लोग भी कुछ भोजन करके यहाँ स रवाना हुआ चाहते हैं। इन्द्रदेव-जेसी मर्जी। जीत-भैरो ओर तारा जो आपके साथ यहाँ आए थे कहाँ चले गए दिखाई नहीं पड़ते। इन्द्रदेव-अब भी मैं उन्हें अपने साथ ही ले जान की आज्ञा चाहता हूँ क्योंकि उनकी मदद को मुझे जरूरत है। जीत-तो क्या आप हम लोगों के साथ न चलेंगे? इन्द-जी हाँ उस बाग तक जरूर साथ चलूंगा जहाँ से मैं आप लोगों को यहाँ तक ले आया हू पर उसके बाद गुप्त हो जाऊँगा क्योंकि में आपको कुछ तिलिस्मी तमाश दिखाना चाहता है और इसके अतिरिक्त उन चीजों को भी तिलिस्म के अन्दर स निकलवा कर चुनार पहुंचाना है जिनके लिये आज्ञा मिल चुकी है। सुरेन्द-नहीं नहीं गुप्त रीति पर हम तिलिस्म का तमाशा नहीं देखा चाहते हमार साथ रहकर जा जो कुछ दिखा सको दिखा दो बाकी रहा उन चीजों को निकलवा कर चुनार पहुंचाना सा यह काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं। इन्द्र-जेसी आज्ञा। इतना कहकर इन्द्रदेव थोडी दर के लिए कहीं चले गए और तब भैरोसिह तथा तारासिह को साथ लिए आकर बोल भाजन तैयार है। सब काइ वहाँ से उठ और भाजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। जिस तरह इन्द्रदेव इन लोगों का अपने स्थान में ले आये थे उसी तरह पुन उस तिलिस्मी बाग में ले गये जिसमें से लाए थे। जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगेरह उस बारहदरी में पहुंचे जिसमें पहिले दिन आराम किया था और जहॉ बाजे की आवाज सुनी थी तर दिन पहर भर से कुछ ज्यादे बाकी था। जीतसिह ने इन्ददेव से पूछा अब क्या करना चाहिए? इन्ददेव-यदि महाराज आज की रात यहीं रहना पसन्द करे ता एक दूसरे बाग में चलकर वहाँ की कुछ कैफियत दिखाऊँगा ! जीत-यहुत अच्छी बात है चलिये । इतना सुनकर इन्द्रदव ने उस बारहदरी की कई आलमारियों में से एक आलमारी खोली और उसके अन्दर जाकर सभों का अपने पीछे आन का इशारा किया। यहाँ एक गली के तौर पर रास्ता बना हुआ था जिसमें सब कोई इन्ददेव की इच्छानुसार यखोफ चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद जब इन्द्रदेव ने दूसरा दर्वाजा खोला तब उसकं बाहर होकर सभों न अपन को एक छोटे बाग में पाया जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढग की थी। यह बाग जगली पौधों की सब्जी से हरा भरा था और पानी का चश्मा भी बह रहा था मगर चारदीवारी क अतिरिक्त और किसी तरह की बडी इमारत इसमें न थी हॉ बीच में एक बहुत बडा चबूतरा जरुर था जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे माटे यारह खम्भों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढन क लिए चारो तरफ सीढ़ियों थीं । यह चबूतरा कुछ अजीव ग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौडा और इतना ही लम्बा होगा। इसक फर्श में लाह की बारीक नालियों जाल की तरह जडी हुई थी और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अन्दाज का रक्या था जिस पर चार आदमी बैठ सकत थे। बस इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था। देवकीनन्दन स्त्री समग्र ९५२